भारत और चीन सीमा विवाद किसी से छुपा नहीं है | दुनिया के हर देश ने समर्थन दिया है | तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा भी हमेशा से भारत के पक्ष में रहे हैं | 31 मार्च 1959 को दलाई लामा ने भारत में कदम रखा था। 17 मार्च को वो तिब्बत की राजधानी ल्हासा से पैदल ही निकले थे और हिमालय के पहाड़ों को पार करते हुए 15 दिनों बाद भारतीय सीमा में दाखिल हुए थे।
इतिहासकार बताते हैं कि जब चीन ने तिब्बत पर कब्जा किया और दलाई लामा भारत की सीमा में आ रहे थे तो यात्रा के दौरान उनकी और उनके सहयोगियों की कोई खबर नही आने पर लोग ये आशंका जताने लगे थे कि उनकी मौत हो गई । दलाई लामा के साथ कुछ सैनिक और कैबिनेट के मंत्री थे।
चीन की नजरों से बचने के लिए ये लोग सिर्फ रात को सफर करते थे। टाइम मैगजीन के मुताबिक बाद में ऐसी अफवाहे भी फैलीं कि, “बौद्ध धर्म के लोगों की प्रार्थनाओं के कारण धुंध बनी और बादलों ने लाल जहाजों की नजर से उन्हें बचाए रखा।”
भारत से दुश्मनी कर चीन ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी से वार किया है | विश्व का ऐसा कोई भी बड़ा पुरस्कार नहीं होगा जो दलाई लामा को न मिला हो | चीन सभी को अपनी हेकड़ी दिखाता रहता है | दलाई लामा 85 साल के तिब्बती धर्मगुरु हैं । चीन तिब्बत पर अपना दावा पेश करता है। आखिर 85 साल के इस बुजुर्ग से चीन इतना चिढ़ा क्यों रहता है? जिस देश में भी दलाई लामा जाते हैं वहां की सरकारों से चीन आधिकारिक तौर पर आपत्ति जताता है। आखिर ऐसा क्यों है?
घमंड सब कुछ तबाह कर देता है, चीन की विस्तारवादी निति नए भारत पर बिलकुल नहीं चल सकती | क्या आप जानते हैं ? चीन और दलाई लामा का इतिहास ही चीन और तिब्बत का इतिहास है। 1409 में जे सिखांपा ने जेलग स्कूल की स्थापना की थी। इस स्कूल के माध्यम से बौद्ध धर्म का प्रचार किया जाता था।
यह जगह भारत और चीन के बीच थी जिसे तिब्बत नाम से जाना जाता है। इसी स्कूल के सबसे चर्चिच छात्र थे गेंदुन द्रुप। गेंदुन जो आगे चलकर पहले दलाई लामा बने। बौद्ध धर्म के अनुयायी दलाई लामा को एक रूपक की तरह देखते हैं। इन्हें करुणा के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। और दूसरी तरफ इनके समर्थक अपने नेता के रूप में भी देखते हैं। दलाई लामा को मुख्य रूप से शिक्षक के तौर पर देखा जाता है।
विश्व का हर बड़ा पुरस्कार जीतने वाले वह पहले शख्स हैं | कुछ दिनों पहले तक उनको भारत रत्न देने की भी बात चल रही थी | आपको बता दें लामा का मतलब गुरु होता है। लामा अपने लोगों को सही रास्ते पर चलने की प्रेरणा देते हैं। 1630 के दशक में तिब्बत के एकीकरण के वक़्त से ही बौद्धों और तिब्बती नेतृत्व के बीच लड़ाई है।
मान्चु, मंगोल और ओइरात के गुटों में यहां सत्ता के लिए लड़ाई होती रही है। अंततः पांचवें दलाई लामा तिब्बत को एक करने में कामयाब रहे थे। इसके साथ ही तिब्बत सांस्कृतिक रूप से संपन्न बनकर उभरा था। तिब्बत के एकीकरण के साथ ही यहां बौद्ध धर्म में संपन्नता आई। जेलग बौद्धों ने 14वें दलाई लामा को भी मान्यता दी।
यह तो सभी ने सुना होगा कि भरोसे से रिश्ते बनते हैं | लेकिन चीन अपनी गलत सोच और विस्तारवादी निति से कभी किसी देश से अच्छे संबंध नहीं बाना सका है | दलाई लामा के चुनावी प्रक्रिया को लेकर विवाद रहा है। 13वें दलाई लामा ने 1912 में तिब्बत को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। करीब 40 सालों के बाद चीन के लोगों ने तिब्बत पर आक्रमण किया। चीन का यह आक्रमण तब हुआ जब वहां 14वें दलाई लामा को चुनने की प्रक्रिया चल रही थी। तिब्बत को इस लड़ाई में हार का सामना करना पड़ा।
हर आस की उम्मीद होती है, हर गुनाह की सजा होती है, हर बात की गहराई होती है और अगर पानी सर के ऊपर से जाय तो विरोध की तैयारी होती है | कुछ सालों बाद तिब्बत के लोगों ने चीनी शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया। ये अपनी संप्रभुता की मांग करने लगे। हालांकि विद्रोहियों को इसमें सफलता नहीं मिली। दलाई लामा को लगा कि वह बुरी तरह से चीनी चंगुल में फंस जाएंगे। इसी दौरान उन्होंने भारत का रुख किया। दलाई लामा के साथ भारी संख्या में तिब्बती भी भारत आए थे। यह साल 1959 का था।
चीन हमेशा से दूसरों से चिढ़ने वाला रहा है | अमेरिका हो या जापान सभी उसके कट्टर दुशमन हैं | उसे भारत में दलाई लामा को शरण मिलना अच्छा नहीं लगा। तब चीन में माओत्से तुंग का शासन था। दलाई लामा और चीन के कम्युनिस्ट शासन के बीच तनाव बढ़ता गया। दलाई लामा को दुनिया भर से सहानुभूति मिली लेकिन अब तक वह निर्वासन की ही जिंदगी जी रहे हैं। दलाई लामा का अब कहना है कि वह चीन से आजादी नहीं चाहते हैं, लेकिन स्वायतता चाहते हैं।
Written By – Om Sethi
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