कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को गोपाष्टमी के रूप में मनाया जाता है, जो इस 01 नवंबर को है। भारतवर्ष में गोपाष्टमी का उत्सव बड़े उल्लास से मनाया जाता है। विशेषकर गौशालाओं के लिए यह बड़े महत्व का उत्सव है। इस दिन गौशालाओं में एक मेला जैसा लग जाता है। गौ कीर्तन-यात्राएं निकाली जाती हैं। यह घर-घर व गांव-गांव में मनाया जाने वाला उत्सव है। इस दिन गांव-गांव में भंडारे किए जाते हैं।
इस दिन गायों को स्नान कराएं। तिलक करके पूजन करें व गोग्रास दें। गायों को अनुकूल हो ऐसे खाद्य पदार्थ खिलाएं, सात परिक्रमा व प्रार्थना करें तथा गाय की चरणरज सिर पर लगाएं। इससे मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं एवं सौभाग्य की वृद्धि होती है।
गोपाष्टमी के दिन शाम में गायें चराकर जब वापस आएं तो उस समय भी उनका आतिथ्य, अभिवादन और पंचोपचार-पूजन करके उन्हें कुछ खिलाएं और उनकी चरण की धूल को मस्तक पर धारण करें, इससे सौभाग्य की वृद्धि होती है।
जब कृष्ण भगवान ने अपने जीवन के छठे वर्ष में कदम रखा। तब वो अपनी यशोदा मैया से जिद्द करने लगे कि वो अब बड़े हो गये हैं और बछड़े को चराने के साथ वो अब गाय चराएंगे। उनके बालहठ के आगे मैया को हार माननी ही पड़ी और मैया ने उन्हें अपने पिता नन्द बाबा के पास इसकी आज्ञा लेने भेज दिया।
भगवान कृष्ण ने नन्द बाबा के सामने जिद्द रख दी कि अब वे गैया ही चरायेंगे। नन्द बाबा गैया चराने के मुहूर्त के लिए, शांडिल्य ऋषि के पास पहुँचे, बड़े अचरज में आकर ऋषि ने कहा कि, अभी इसी समय के आलावा कोई शेष मुहूर्त नहीं हैं अगले बरस तक।
शायद भगवान की इच्छा के आगे कोई मुहूर्त क्या था। वो दिन गोपाष्टमी का था। जब श्री कृष्ण ने गैया चराना आरंभ किया। उस दिन यशोदा माता ने अपने कान्हा को बहुत सुन्दर तैयार किया। मौर मुकुट लगाया, पैरों में घुंघरू पहनाये और सुंदर सी पादुका पहनने दी लेकिन कान्हा ने वे पादुकायें नहीं पहनी।
उन्होंने मैया से कहा अगर तुम इन सभी गैया को चरण पादुका पैरों में बांधोगी तब ही मैं यह पहनूंगा। मैया ये देख कर भावुक हो जाती हैं और कान्हा बिना पैरों में कुछ पहने अपनी गैया को चराने के लिये ले जाते। गौ चरण करने के कारण ही, श्री कृष्णा को गोपाल या गोविन्द के नाम से भी जाना जाता है।
ब्रज में इंद्र का प्रकोप इस तरह बरसा की लगातार बर्षा होती रही, जिससे बचाने के लिए कृष्ण ने जी सात दिन तक गोबर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी ऊँगली से उठाये रखा, उस दिन गोबर्धन पूजा की जाती है।
गोपाष्टमी के दिन ही इंद्र ने अपनी हार स्वीकार की थी, जिसके बाद श्रीकृष्ण ने गोबर्धन पर्वत नीचे रखा था। भगवान कृष्ण स्वयं गौ माता की सेवा करते हुए, गाय के महत्व को सभी के सामने रखा। गौ सेवा के कारण ही इंद्र ने उनका नाम गोविंद रखा था।
गोपाष्टमी से जुड़ी एक बात और ये है कि राधा भी गाय को चराने के लिए वन में जाना चाहती थी, किन्तु कन्या होने के कारण उन्हें इस बात के लिये कोई हामी नहीं करता था। तब राधा जी को एक युक्ति सूझी, उन्होंने ग्वाला जैसे वस्त्र धारण किये और वन में कान्हा जी के साथ गाय चराने चली गई।
गाय का दूध, गाय का घी, दही, छांछ यहाँ तक की मूत्र भी मनुष्य जाति के स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हैं। गोपाष्टमी त्यौहार हमें बताता हैं कि हम सभी अपने पालन के लिए गाय पर निर्भर करते हैं इसलिए वो हमारे लिए पूज्यनीय हैं और हिन्दू संस्कृति, गाय को माँ का दर्जा देती हैं।
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