नमस्कार! मैं फरीदाबाद आज आप सभी के साथ अपने दिल का दर्द बांटने आया हूँ। त्योहारों का समा है और हर कोई खुश है परन्तु जनता की इस ख़ुशी पर कोई पहरा डाले बैठा है। वह “कोई” है वैश्विक महामारी जिसने हम सभी को मजबूर कर दिया कि अपनी ख़ुशी और उल्लास को अपने तक सीमित रखें।
इस महामारी के चलते मेरे प्रांगण में बरसों से चली आ रही रावण दहन की प्रथा को भी नजर लग गई है। 70 साल से मैंने रावण दहन का आयोजन होता देखा है पर इस बार दशहरे का रंग फींका पड़ा नजर आता है।

मुझे याद है कैसे सेक्टर 16 के मैदान के बीचों बीच रावण का विशालकाय पुतला खड़ा किया जाता था। उसके साथ मेघनाथ और कुम्भकर्ण के पुतलों को भी जलाया जाता था। आप सोच रहे होंगे कि मैं अपने वाक्यों में “था” शब्द का प्रयोग क्यों कर रहा हूँ? क्यों कि मैं जानता हूँ इस बार चाहकर भी दसहरे के पर्व का आयोजन नहीं किया जा सकता।

पर मैं उन सभी के बारे में सोच सोचकर चिंतित हूँ जो त्योहारों को अपनी जीवनी कमाने का जरिया मानते हैं। नवरात्र की शुरुआत हुई तो शहर के फूल बेचने वालों को लगा कि व्यवसाय बढ़ेगा पर परिणाम इसके विपरीत रहा। अब ऐसे छोटे व्यवसाय कर्ता क्या कमा कर खाएंगे?

मैं जानता हूँ कि यह काम प्रशासन के जिम्मे नहीं आता पर क्या इन लोगों को त्यहारों में खुश रहने का हक़ नहीं है? महामारी ने त्योहारों को बलि चढ़ा दिया है। जनता जिस हर्ष उल्लास के साथ त्यौहार मनाती है थी वह अब नहीं हो पा रहा है।

आवाम को दरकार है नए रंगों की। आज शहर में सजे दुर्गा पांडाल में एक औरत ने कहा कि काश माँ दुर्गा महामारी को अपने साथ वापस ले जाएं। मैं भी उम्मीद करता हूँ कि इस पूरे वाक्य में से “काश” हट जाए और यह दुनिया महामारी से मुक्त हो जाएं।