सिर्फ 1 अंग्रेज ने देखा था ‘रानी लक्ष्मीबाई’ का चेहरा और कभी भी भूल नहीं पाया :- 19 नवंबर की तारीख न सिर्फ झांसी और बनारस बल्कि पूरे देश के लिए एक गौरवपूर्ण तारीख है, क्योंकि इस दिन इतिहास में महिला सशक्तिकरण की मिसाल रानी लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ था. जिनकी वीरता के किस्से भारतीयों के दिलों में ही नहीं, अंग्रेजों की किताबों में भी लिखे गए.
क्वीन ऑफ झांसी का असल नाम मणिकर्णिका था. 18 साल की उम्र में विधवा हुई रानी ने जिस तरह की हिम्मत और साहस दिखाया, वो महिलाओं के लिए हर दौर में एक सबक की तरह रहेगा.
1857 की क्रांति के नायकों में शुमार रानी लक्ष्मीबाई का युद्ध कौशल जितना जबरदस्त था, उतनी ही वो खूबसूरत भी थीं. हालांकि उन्हें देखने का सौभाग्य हर किसी को नसीब नहीं हुआ. खास तौर पर उनके सबसे बड़े दुश्मन रहे अंग्रेजों को न तो उनकी शक्ल देखना नसीब हुआ था, न ही युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने के बाद उन्हें रानी का शरीर ही मिल पाया. फिर भी एक अंग्रेज था, जिसे रानी लक्ष्मीबाई ने खुद बुलाया और उसे उन्हें देखने का भी सौभाग्य मिला.
जब अंग्रेजों ने झांसी के राजा की मौत के बाद डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स को मानने से इनकार कर दिया , तब रानी लक्ष्मीबाई ने उस वक्त बेहद मशहूर ऑस्ट्रेलियन वकील जॉन लैंग से मदद ली. उन्होंने जॉन लैंग को आगरा से झांसी बुलवाया था और उसे लंदन में अपना केस लड़ने के लिए नियुक्त किया था. इसी दौरान जॉन लैंग ने धोखे से रानी को देख लिया था और अपनी किताब वंडरिंग ऑफ इंडिया में इस घटना का जिक्र भी किया है.
दरअसल, 28 अप्रैल 1854 को मेजर एलिस ने रानी को किला छोड़ने का फरमान सुनाया था. उन्हें पेंशन लेकर रानी महल में ठहरने के ऑर्डर दिए. तब रानी लक्ष्मीबाई को पांच हजार रुपए की पेंशन पर किला छोड़ रानी महल में रहना पड़ा. झांसी दरबार ने केस को लंदन की कोर्ट में ले जाने का डिसिजन लिया. इसके लिए जॉन लैंग को उनकी तरफ से वकील हायर किया.
जॉन लैंग के मुताबिक ‘ रानी लक्ष्मी बाई से बातचीत शाम के समय हुई थी. दोनों के बीच पर्दा लगा हुआ था. महल के बाहर काफी भीड़ जमा थी. संकरी सीढ़ियों से उन्हें ऊपर के कमरे में ले जाया गया. उन्हें बैठने के लिए कुर्सी दी गई और सामने पर्दा लगा हुआ था.
पर्दे के पीछे रानी लक्ष्मीबाई, गोद लिया बेटा दामोदर राव और महल के कर्मचारी थे. बातचीत के दौरान ही दामोदर का हाथ लगने से पर्दा हट गया. वाक्ये से रानी हैरान रह गईं, हालांकि तब तक जॉन रानी को देख चुके थे.
जॉन लैंग ने लिखा है कि उन्होंने रानी की तारीफ में कहा था कि ‘अगर गवर्नर जनरल भी आपको देखने का सौभाग्य पाते तो मैं विश्वास के साथ कह सकता हूं कि वो इस खूबसूरत रानी को झांसी वापस दे देते.’ उस वक्त रानी लक्ष्मीबाई ने बेहद सादगी से जॉन लैंग के कॉम्प्लीमेंट को स्वीकार लिया था. जॉन लैंग ने रानी के बारे में लिखा है कि – वे सामान्य कद-काठी की थीं.
उनका चेहरा काफी गोल था. आंखें बेहद सुंदर थीं और नाक छोटी. रंग न गोरा था, न ही सांवला. उन्होंने सफेद मलमल की साड़ी पहनी हुई थी और शरीर पर सोने की बालियों के अलावा कोई जेवर नहीं था. वे आकर्षक थीं लेकिन उनकी आवाज काफी कड़क थी.’
अंग्रेज़ों की तरफ़ से कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स पहला शख़्स था जिसने रानी लक्ष्मीबाई को अपनी आँखों से लड़ाई के मैदान में लड़ते हुए देखा. उस वक्त उन्होंने घोड़े की रस्सी अपने दाँतों से दबाई हुई थी. वो दोनों हाथों से तलवार चला रही थीं और एक साथ दोनों तरफ़ वार कर रही थीं.
जॉन हेनरी सिलवेस्टर ने अपनी किताब ‘रिकलेक्शंस ऑफ़ द कैंपेन इन मालवा एंड सेंट्रल इंडिया’ में लिखा,
“अचानक रानी ज़ोर से चिल्लाई, ‘मेरे पीछे आओ.’
वे लड़ाई के मैदान से इतनी तेज़ी से हटीं कि अंग्रेज़ सैनिकों को इसे समझ पाने में कुछ सेकेंड लग गए. तभी रॉड्रिक ने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा, ‘दैट्स दि रानी ऑफ़ झाँसी “
रानी लक्ष्मीबाई की मौत एक अंग्रेज सैनिक की कटार सर पर लगने की वजह से हुई थी. वे घायल अवस्था में मंदिर तक गई थीं. जहां उन्होंने दामोदर की जिम्मेदारी सैनिकों को सौंपी. उस वक्त रानी बदहवाश हालत में थीं. फिर भी उन्होंने मरते-मरते कहा कि उनका शरीर अंग्रेजों को नहीं मिलना चाहिए.
बताया जाता है कि आनन-फानन में मंदिर में उनका दाह संस्कार किया गया. अंग्रेज वहां पहुंचे, मंदिर में कत्ले आम कर डाला लेकिन जब तक वे चिता तक पहुंचते वहां रानी का शरीर नहीं बचा था.
Post Credit : ZEE NEWS
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