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इस मंदिर में श्रीकृष्ण ने कौरवों-और पांडवों से कराई थी पूजा, यहां लोग नही करते अस्थियों का वसर्जन

हर क्षेत्र हर गांव की एक अलग ही पुरानी कथा है। जहां हर व्यक्ति के लिए एक अलग अनुभव होता है और उस क्षेत्र में सालों से माने जानी वाली मान्यता ही एक नई पहचान बनाकर लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करती हैं। इन्हीं पौराणिक मान्यताओं से जुड़ाव है पूजम गांव स्थित प्राचीन शिव मंदिर का। दरअसल, इस मंदिर में सावन के दौरान श्रद्धालुओं की भरमार देखने को मिलती है।

कहा जाता है कि यह गांव आज से नहीं बल्कि महाभारत काल के भी इतिहास को अपने अंदर संजोए हुए हैं। इतना ही नहीं यहां तक कहा जाता है कि यहां स्वयं भगवान श्री कृष्ण द्वारा कौरव और पांडवों से पूजन करवाया गया था यही कारण है जिसके बाद इस पूजन से गांव का नाम पूजम पड़ गया था।

इस मंदिर में श्रीकृष्ण ने कौरवों-और पांडवों से कराई थी पूजा, यहां लोग नही करते अस्थियों का वसर्जनइस मंदिर में श्रीकृष्ण ने कौरवों-और पांडवों से कराई थी पूजा, यहां लोग नही करते अस्थियों का वसर्जन

दरअसल, यहां भगवान ने स्वयं पूजन कराया इसलिए यह जगह अत्यधिक पवित्र है। यही कारण है कि इस गांव के लोग आज भी किसी के अंतिम संस्कार के बाद उसकी अस्थियों का संचय नहीं करते, न गंगा आदि में प्रवाहित करते हैं। माना जाता है कि जिसने यहां प्राण त्यागे हैं, वह सीधे मोक्षधाम ही जाएगा।

मंदिर में सेवा कर रहे गुरु हरिशंकर दास ने बताया कि महाभारत के युद्ध की शुरुआत होने से पहले भगवान श्रीकृष्ण ने कौरवों और पांडवों को एक साथ बैठाकर इसी स्थान पर मां दुर्गा शक्ति और अस्त्र-शस्त्र की पूजा करने का सुझाव दिया था। श्रीकृष्ण ने भविष्यघोष किया था कि पूजा अर्चना के बाद मां दुर्गा शक्ति युधिष्ठिर या दुर्योधन दोनों में जिसको भी विजय वरदान देगी, विजय रूपी पुष्प उसी की अंजलि में गिरेगा। इसके बाद कौरवों और पांडवों ने पूजा अर्चना आरंभ की।

अहम पूज्यामि के मंत्रोच्चार के साथ पूजा की पूर्ण आहुति डालते ही पुष्प युधिष्ठिर की अंजलि में गिर गया था। कहा जाता हैै कि इसी ‘पूज्यामि’ शब्द का बदला रूप पूजम बनकर प्रसिद्ध हुआ। इस स्थान पर आबाद हुई बस्ती को पूजम नाम से जाना जाने लगा। गांव की पश्चिम में द्वापर युग में एक सरोवर था, जो कालांतर में खंडित हो गया। इस सरोवर के साथ ही एक भव्य शिवालय भी है। जिसमें स्वयंभू शिवलिंग प्रकट रूप में दिखते हैं।

स्वयंभू शिवलिंग की मान्यता


एक धारणा यह भी है कि निकटवर्ती गांव सीधपुर के एक बनिए की यहां कृषि भूमि थी। एक बार काम करते समय जब उसने इस ‘स्वयंभू शिवलिंग’ को देखा तो एक पत्थर समझकर इसे बाहर निकालने की कोशिश की। जिसके चलते वह कुल्हाड़ी, खुदाल अथवा फावड़े से हर रोज जितनी खाेदाई करके जाता,

अगले दिन सुबह आने पर शिवलिंग वापस उसी स्थिति में मिलता था। इस शिवलिंग पर आज भी वहीं निशान विद्यमान हैं। बनिए द्वारा कई दिन तक प्रयास करने के बाद एक रात उसे सपना आया और स्वयंभू शिवलिंग के बारे में बताते हुए वहां मंदिर बनाने की बात कही। जिससे प्रभावित होकर बनिए ने इसी स्थान पर मंदिर बनाया। अपनी चार एकड़ कृषि भूमि भी मंदिर को दी।

मिली जानकारी के मुताबिक, यह प्राचीन और एतिहासिक मंदिर में कई दशकों तक सेवा करने वाला बाबा रामगिरि ने लोगों के सहयेाग से मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए बहुत काम किया था। खंडित हो चुके सरोवर को अब ग्राम पंचायत ने जीर्णोद्धार करके एक भव्य सरोवर का रूप दे दिया है। हर वर्ष वैशाख की दूज तिथि को बाबा रामगिरि की स्मृति में मेले का आयोजन तथा भंडारा लगाया जाता है।

कहीं ना कहीं यह पौराणिक कथाएं और इतिहास आज भी लोगों को अपने से जुड़े हुए हैं, और लोग अभी भी इस तरह की पौराणिक कथाएं और प्राचीन भव्य मंदिरों को देखना और उसके बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए अपने मन में इच्छा जागृत करते हैं। और कहीं ना कहीं यह पौराणिक कथाएं और जगह-जगह मिलने वाले अवशेष लोगों को अपनी और आकर्षित करते हैं।

Avinash Kumar Singh

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Avinash Kumar Singh

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