भारत रहस्य: पंडित नेहरु नहीं, ‘ बरकतुल्ला खान ‘ थे भारत के पहले प्रधानमंत्री :- भारत के पहले प्रधानमंत्री का नाम क्या है? इस सवाल का जवाब तो बच्चा भी देे देता है. इतिहास की किताबों में दर्ज है कि पंडित जवाहर लाल नेहरु भारत के पहले प्रधानमंत्री बने. पर क्या यह वाकई सच है?
क्योंकि इतिहास का एक पन्ना वो भी है जिसमें भारत के पहले प्रधानमंत्री का नाम बरकतुल्ला खान बताया गया है! यह सुनकर हैरानी हो सकती है पर इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि पंडित नेहरू से पहले ही भारत में प्रधानमंत्री घोषित कर दिया गया था.
अब सवाल यह उठता है कि आखिर बरकतुल्ला खान थे कौन? जिन्हें भारत के पहले प्रधानमंत्री होने का गौरव हासिल हुआ? और यदि वे प्रधानमंत्री थे तो फिर पंडित नेहरु का नाम प्रथम स्थान पर क्यों है? चलिए आज इसी गुत्थी को सुलझाते और समझते हैं.
प्रथम प्रधानमंत्री के नाम पर आपका तनाव और बढ़े इसके पहले समझ लें कि यहां जिन बरकतुल्ला खान की बात हो रही है, उनके प्रधानमंत्री चुने जाने के वक्त भारत अंग्रेजों का गुलाम था जबकि पंडित नेहरु आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री कहलाए. इसलिए लोगों ने उनके बारे में ज्यादा पढ़ा और सुना. लेकिन बरकतुल्ला खान भी वो शख्स हैं, जिनके बारे में बात होनी चाहिए.
चूूंकि आजादी की जंग में उनका योगदान भी कम नहीं था. मप्र के भोपाल में 7 जुलाई 1854 को जन्में बरकतुल्ला का परिवार भोपाल रियासत का अहम हिस्सा था. कुछ लोगों का मानना है कि उनकी पैदाइश 1857 या 1858 में हुई. उन्होंने सुलेमानिया स्कूल से अरबी, फ़ारसी और अंग्रेजी की तालीम हासिल की.
अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के लीडर शेख जमालुद्दीन अफगानी से प्रभावित होकर उन्होंने सभी देशों के मुसलमानों को एक करने की ठानी. इसी दौरान मां-पिता का देहांत हो गया. सिर पर एक बहन की जिम्मेदारी थी, सो उसका भी ब्याह हो गया. अब बरकतुल्ला खान के जीवन में कोई नहीं था, सिवाए अपने लक्ष्य के.
उन्होंने एक दिन बिना किसी को खबर किए भोपाल छोड़ दिया और बंबई में पहुंच गए. यहां बच्चों को ट्यूशन पढ़ने के साथ खुद भी अंग्रेजी भाषा में शिक्षा जारी रखी. बंबई में पढ़ई पूरी करने के बाद उन्होंने इंग्लैंण्ड का रूख किया.
वैसे तो वे इंग्लैंण्ड पढ़ई के करने गए थे लेकिन यहीं से उनके जीवन की दिशा बदल गई. बरकतुल्ला की मुलाकात यहां प्रवासी हिन्दुस्तानी क्रान्तिकारियों के संरक्षक श्याम जी कृष्ण वर्मा से हुई. कुछ घंटों की इस मुलाकात ने बरकतुल्ला के मन में घहरी छाप छोड़ी. वे भारत की आजादी के लिए मुखर हुए.
हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी विचारों और गतिविधियों का प्रसार करने के लिए उन्होंने कलम का दामन थाम किया. अपने क्रांतिकारी लेखों के जरिए वे जल्दी ही चर्चा में आ गए.
खान लिवरपूल यूनिवर्सिटी के ओरियन्टल कालेज में फ़ारसी के प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए पर भारत में ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचारों के खिलाफ उनकी कलम चलती रही. यही कारण था कि इंग्लैंण्ड में खान का विरोध शुरू हो गया. हालात इतने खराब हुए कि बरकतुल्ला को देश छोड़ने की नौबत आ गई.
1899 में बरकतुल्ला अमेरिका पहुुंचे. जहां वे प्रवासी भारतीयों के साथ मिलकर भारत की आजादी के लिए सम्मेलन करते रहे. ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उनके भाषण और लेख यहां भी जारी रहे. खर्च चलाने के लिए उन्होंने स्कूलों में अरबी पढ़ाने का काम किया, लेकिन दिल और दिमाग तो भारत की चिंता में मग्न था.
भारत के प्रति उनकी चिंता का सबूत है हसरत मोहानी को लिखा गया एक खत. जिसके एक अंश में उन्होंने लिखा है कि- “बड़े अफ़सोस की बात है कि, 2 करोड़ हिन्दुस्तानी, हिन्दू-मुसलमान भूख से मर रहे हैं, पूरे देश में भुखमरी फैलती जा रही हैं, लेकिन ब्रिटिश सरकार हिन्दुस्तान को अपने मालो – सामानों का बाज़ार बनाने की नीति को ही आगे बढाने में लगी हैं.
हिन्दुस्तान से करोड़ो रुपयों की लूट तो केवल इस देश में लगाई गई पूंजी के सूद के रूप में ही की जाती है और यह लूट निरंतर बढती जा रही है. देश की इस गुलामी और उसमे उसकी गिरती दशा के लिए जरूरी है कि देश के हिन्दू-मुसलमान एकजुट होकर तथा कांग्रेस के साथ होकर देश की स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए हिन्दू मुस्लिम एकता को बढाएँ.”
1857 की क्रांति से प्रभावित बरकतुल्ला क्रांति की नई अखल जगाने के लिए अमेरिका से जापान पहुंचे. जो उन दिनों प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों का मुख्य ठिकाना बना हुआ था. 1905 के अन्त तक बरकतुल्ला महान क्रांतिकारी विचारक बन चुके थे.
उन्होंने जोर दिया कि मुसलमानों को हिन्दू और सिखों के साथ मिलकर अंग्रेजी हुकूमत की खिलाफत करनी होगी. हालांकि जापान में भी ब्रिटिश अफसरों ने उन्हें चैन से नहीं रहने दिया और एक बार फिर वे अमेरिका पहुंचे.
जब वे दोबारा अमेरिका पहुंचे तब तक प्रवासी हिन्दुस्तानियों ने गदर पार्टी के निर्माण का प्रयास शुरू कर दिया था. खान ने उनका साथ दिया और कनाडा तथा मैक्सिको में रह रहे भारतीय प्रवासियों को एक किया.
13 मार्च 1913 को गदर पार्टी की स्थापना करने के बाद उन्होंने 120 भारतीयों का सम्मलेन आयोजित किया. यह भारत के बाहर देश की स्वतंत्रता का प्रमुख अभियान बना. जिसमें सोहन सिंह बहकना और लाला हरदयाल जैसे अप्रवासी क्रांतिकारी शामिल हुए. बरकतुल्ला ने ब्रिटिश राज को उखाड़ कर भारत में जनतांत्रिक व धर्म निरपेक्ष गणराज्य की स्थापना करने का सपना देखा.
गदर पार्टी ने साप्ताहिक गदर का प्रकाशन शुरू किया, जिसमें बरकतुल्ला लगातार अपने क्रांतिकारी लेख लिखते रहे. यह मुहिम अमेरिका से जमर्नी पहुंच गई.चम्पक रामन पिल्लई, भूपेन्द्रनाथ दत्ता, राजा महेंद्र प्रताप और अब्दुल वहीद खान ने इस आंदोलन को हवा दी. यहीं राजा महेंन्द्र प्रताप से बरकतुल्ला की पहली मुलाकात हुई. वे जल्दी ही घनिष्ट मित्र बन गए.
दोनों ने बर्लिन में युद्धरत हिन्दुस्तानी सैनिको से ब्रिटिश फ़ौज से बगावत करवाने के बाद उन्हें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध खड़ा किया. आंदोलन को भारत तक पहुंचाने कि लिए दोनों ने साथ में तुर्की, बगदाद और फिर अफगानिस्तान का सफर किया.
उस समय प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध कर रहा था और इस लिए बरकतुल्ला और राजा महेन्द्र जर्मनी सरकार के खास बन गए. सफर के दौरान सरकार ने उन्हें सुरक्षा के लिए सैनिक भी मुहैया करवाए. पर जब वे काबुल पहुंचे तो उन्हें ब्रिटिश सैनिकों ने नजरबंद कर लिया. जर्मनी सरकार ने दवाब बनाया और अफगानी आवाम ने भी विरोध किया.
आखिरकार वे कैद से आजाद हुए और 1915 में हिन्दुस्तान की अस्थाई सरकार का गठन किया. प्रथम विश्व युद्ध के दौर में ब्रिटिश विरोधी जर्मनी सरकार ने तुरन्त ही अफ़गानिस्तान में हिन्दुस्तानियों की इस अस्थाई क्रांतिकारी सरकार को मान्यता प्रदान भी दे दी. अस्थाई सरकार के राष्ट्रपति बने राजा महेन्द्र और प्रधानमंत्री बने बरकतुल्ला खान.
भारत की अस्थाई सरकार के साथ अफगानिस्तान की सरकार ने अहम समझौता किया. जिसमें वायदा किया गया कि अफगान भारत की आजादी की जंग में उसके साथ है. इसके बदलने में आजादी के बाद भारत की यह सरकार बलूचिस्तान और पख्तुनी भाषा-भाषी क्षेत्र अफ़गानिस्तान को सौंप देगी. अस्थाई सरकार जब भारत में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रमण की तैयारी कर रही थी. तभी 1917 की अक्तूबर क्रान्ति के जरिए रूस की जारशाही का तख्ता पलट हो गया.
1919 में बरकतुल्ला सरकार से स्वतंत्रता के उद्देश्य के बारे में बात करने के लिए मास्को पहुंचे. जहां लेनिन ने उन्हें अपना समर्थन दिया. उन्हें सोवियत रूस से हिन्दुस्तान के स्वतंत्रता संघर्ष का सीधा समर्थन मिलना शुरू हो गया.
हालांकि बरकतुल्ला जब तक इस आंदोलन की आग भारत के भीतर पहुंचा पाते इसके पहले ही उनकी उम्र जवाब देने लगी थी. वे स्वतंत्रता आंदोलन के लिए एक सभा को संबोधित करने के लिए कैलिफोर्निया पहुंचे. जैसे ही वे बोलने के लिए खड़े हुए, उनकी तबियत बिगडने लगी. संबोधन निरस्त कर दिया गया. कुछ ही दिनों बाद 27 सितम्बर 1927 को बरकतुल्ला खान ने अमेरिका में ही अंतिम सांस ली.
बीमारी से जूझते हुए उन्होंने अपने साथियों से कहा था कि “मैं आजीवन हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए सक्रिय रहा. यह मेरे लिए ख़ुशी की बात हैं कि मेरा जीवन मेरे देश की बेहतरी के लिए इस्तेमाल हो पाया.
अफ़सोस है कि हमारी कोशिशों का हमारे जीवन में कोई फल नहीं निकला, लेकिन उसी के साथ यह ख़ुशी भी है कि अब हजारो कि तादात में नौजवान देश की आज़ादी के लिए आगे आ रहे हैं, जो ईमानदार और साहसी हैं.
मैं पूरे विश्वास के साथ अपने देश का भविष्य उनके हाथो में छोड़ सकता हूँ. अपने आखिरी दिनों में उन्होंने इच्छा जाहिर की थी कि उनकी कब्र की माटी को भारत में दफनाया जाए. लेकिन उन्हें अमेरिका के मारवस्बिली क़ब्रिस्तान में दफना दिया गया. बरकतुल्ला की कब्र की माटी को भारत लाना तो दूर सियासतदानों ने उनके नाम तक को भुला दिया! आर्टिकल साभार :- ROAR मीडिया
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