राजस्थान का आठवीं सदी का प्राचीन सुखदेवी माता का मंदिर, जहां अष्टमी की बजाय नवमीं को लगता है भक्तों का तांता

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 राजस्थान का आठवीं सदी का प्राचीन सुखदेवी माता का मंदिर, जहां अष्टमी की बजाय नवमीं को लगता है भक्तों का तांता

नवरात्रि विशेष बेदला की सुखदेवी मंदिर जहां अष्टमी की बजाय नवमीं पर उमड़ती भक्तों की भीड़। आपको बता दे, राजस्थान के उदयपुर शहर के बेदला गांव में माता सुखदेवी का चमत्कारी मंदिर की चर्चा पूरे भारत में हैं। इस मंदिर में भक्तों का तांता लगा रहता है। यहां लकवा जैसी गंभीर रोग से पीड़ित मरीज हो या निसंतना के मारे, भी सुखदेवी माता के आशीर्वाद से स्वस्थ हो जाते हैं। वर्तमान समय में आधुनिक चिकित्सा व्यवस्थ भी लकवा और निसंतनता जैसे रोग के सामने बेबस नजर आती है। लेकिन इस असाध्य रोग के इलाज करने के लिए माता सुखदेवी मंदिर में लोग दूर-दूर से आते हैं। यहां हर वर्ष लकवा ग्रस्त रोगियों की आने वालों की संख्या बढ़ते जा रही है।

आठवीं सदी से है माता सुखदेवी का प्राचीन मंदिर

माता सुखदेवी का मंदिर आठवीं सदी का प्राचीन अनोखा मंदिर है। इस मंदिर की मान्यता भी उतनी ही निराली है। माता के दर्शन के बाद भक्तों को हिदायत है कि वह पीछे मुड़कर नहीं देखें और भक्त भी सदियों से इसकी पालना करते आए हैं।

राजस्थान का आठवीं सदी का प्राचीन सुखदेवी माता का मंदिर, जहां अष्टमी की बजाय नवमीं को लगता है भक्तों का तांता

कहा जाता है कि माता के दरबार में भूत-प्रेत और उपरी हवा जैसी बाधा पीछे रह जाती है और भक्तों को पीछे मुड़कर देखने को नहीं कहा जाता।

नवमीं को उमड़ती है भीड़, वाहनों पर लिखते है माता का नाम

देश भर के शक्ति पीठों और देवी माता के मंदिरों में अष्टमी को भक्तों की भीड़ रहती है, लेकिन यहां मामला जुदा है। इस मंदिर में अष्टमी की बजाय नवमीं को भक्तों की भीड़ जुटती है। इस परंपरा को लेकर बुजुर्ग भी नहीं बता पाते।

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बेदला में हर जाति और धर्म के लोग रहते हैं लेकिन यहां रहने वाले लोग अपने वाहनों पर सुखदेवी माता का नाम अवश्य लिखाते हैं। नया वाहन खरीदने के बाद सबसे पहले सुखदेवी माता के मंदिर लाते हैं और वहां पूजा-अर्चना कराते हैं।

मनोकामना पूरी होने पर मुर्गे और बकरे की देते है भेट

देश की अन्य शक्तिपीठों की तरह ही बेदला की सुखदेवी माता पर भी पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी लेकिन सैकड़ों साल पहले ही इसे रोक दिया गया। मेवाड़ राज्य के बेदला राजघराने ने इसकी जगह जिंदा बकरा और मुर्गे छोड़ने की परम्परा शुरू की, जो अब भी जारी है।

राजस्थान का आठवीं सदी का प्राचीन सुखदेवी माता का मंदिर, जहां अष्टमी की बजाय नवमीं को लगता है भक्तों का तांता

अपनी मन्नत पूरी होने पर यहां भक्त बकरे और मुर्गे छोड़ जाते हैं। इसलिए यहां बड़ी संख्या में मुर्गे घूमते दिखाई देते है। इस मंदिर के अहाते में लगे पेड़ों पर दर्जनों मुर्गे बैठे दिखाई देते हैं। यहां छोड़े गए मुर्गों को लोग भोग के रूप में खरीदा अन्न चढ़ाते हैं।

निसंतनों की भरती है गोद, लकवा रोगी होते है ठीक

मान्यता है कि यहां आने वाले लकवा रोगियों की बीमारी मिट जाती है। इसके लिए उन्हें माता की प्रतिमा के सामने बनी खिड़कीनुमा छोटे से दरवाजे से बैठकर सात बार निकलना होता है। उनका मानना है कि यहां आने के बाद उन्हें लाभ होना शुरू होने लगता है।

राजस्थान का आठवीं सदी का प्राचीन सुखदेवी माता का मंदिर, जहां अष्टमी की बजाय नवमीं को लगता है भक्तों का तांता

निसंतान दंपती भी यहां झोली भरने की मन्नत के साथ आते हैं और मंदिर प्रांगण में लगे पेड़ पर झूला टांगकर जाते हैं। कटी पहाड़ी के बीच निकलना शुभ माना जाता है।

पहाड़ी के बीचों बीच के रास्ते से मिलता है माता का दरबार

बेदला स्थित सुखदेवी माता मंदिर जाने के लिए एक पहाड़ी को रास्ता काटकर बनाया गया है। लोग मानते हैं कि जो भी व्यक्ति इस पहाड़ी के बीच से होकर गुजरता है, वह उसके लिए सुखदायी साबित होता है। कहा जाता है कि यही रास्ता माता के मंदिर का दरवाजा था।

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इतिहास के मुताबिक, अति प्राचीन इस मंदिर का जीर्णोंद्धार महाराणा फतह सिंह ने कराया था। बेदला तत्कालीन मेवाड़ राज्य का ठिकाना था और यहां रहने वाले ठिकानेदारों की कुलदेवी बेदला माता है।

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