जानें आखिर कैसे शुरुआत हुई रक्षाबंधन के त्योहार की, क्या है इसके पीछे का इतिहास?

“बहना ने भाई की कलाई से प्यार बांधा है, प्यार के दो तार से संसार बांधा है” सुमन कल्याणपुर की मधुर आवाज ने संगीत को और भी मधुर बना दिया। रेशम की डोरी फिल्म का यह गाना आज भी लोगों की जुबां पर चढ़ा हुआ है। यह एक सदाबहार गाना है। यह गाना भाई बहन के प्यारे रिश्ते को खुबसूरती से बयां करता है। हिंदू धर्म में रक्षाबंधन की गिनती उन त्योहारों में होती है, जो अपने आप में पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व को समेटे हुए हैं।

इस दिन हर भाई की सूनी कलाई बहन की ओर से वह धागा बांधने की इंतजार करती है जिससे उनके प्यार का बंधन हमेशा मजबूत रहे।

जानें आखिर कैसे शुरुआत हुई रक्षाबंधन के त्योहार की, क्या है इसके पीछे का इतिहास?जानें आखिर कैसे शुरुआत हुई रक्षाबंधन के त्योहार की, क्या है इसके पीछे का इतिहास?

परदेश में बसे भाई भी बड़ी बेसब्री से अपनी बहन की राखी की राह देखते हैं। भाई अपनी बहन के घर उपहार लेकर जाते हैं और रक्षा का धागा बंधवाते हैं। ऐसा जरूरी नहीं कि सिर्फ सगी बहन ही भाई को राखी बांध सकती है। मुंहबोले भाई और बहन में भी रक्षा बांधने-बंधवाने का दस्तूर भी काफी पुराना है।

रक्षाबंधन की यह परपंरा उन बहनों ने ही शुरू की थी, जो सगी नहीं थीं। उन्होंने अपनी रक्षा के लिए मुंहबोले भाई को एक धागा बांधकर जो परंपरा शुरू की, वह आज रक्षाबंधन के त्योहार के नाम से मशहूर है।

देवराज इंद्र और इंद्राणी से जुड़ा है रक्षाबंधन का त्योहार

रक्षाबंधन के त्योहार की शुरुआत कैसे हुई, कब हुई, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है। लेकिन भविष्य पुराण के अनुसार, इसकी शुरुआत देव-दानव युद्ध से हुई थी। उस युद्ध में जब देवता हारने लगे तब भगवान इंद्र घबरा कर देवगुरु बृहस्पति के पास पहुंचे। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी यह सब सुन रही थी।

उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बांध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का ही दिन था। उस अभिमंत्रित धागे की शक्ति के आगे कोई भी असुर टिक नहीं पाया और देवता यह युद्ध जीत गए। इस धागे की शक्ति से ही देवराज इंद्र ने असुरों को परास्त किया।

यह धागा भले ही पत्नी ने पति को बांधा था, लेकिन इसे धागे की शक्ति सिद्ध हुई और फिर कालांतर में बहनें भाई को बांधने लगीं।

भगवान कृष्ण और द्रौपदी का रक्षाबंधन से क्या है नाता?

पौराणिक गाथाओं में राखी से जुड़ी सबसे प्रसिद्ध कहानी भगवान कृष्ण और द्रौपदी की है। शिशुपाल वध के समय श्रीकृष्ण ने इतने गुस्से में चक्र चलाया था कि उनकी उंगली घायल हो गई और उससे खून बहने लगा। द्रौपदी ने खून रोकने के लिए अपनी साड़ी का एक टुकड़ा फाड़कर भगवान की अंगुली पर बांध दिया।

इस पर भगवान कृष्ण ने उसी समय पांचाली को यह वचन दिया कि वह हमेशा संकट के समय उनकी सहायता करेंगे। भगवान श्रीकृष्ण ने दौपद्री चीरहरण के समय अपना यह वचन पूरा भी किया।

रक्षासूत्र बांध राजा बलि से अपने पति भगवान विष्णु को मांगा उपहार के रूप में

ऋषि कश्यप के वंशज और प्रह्लाद के पौत्र दानवराज बलि से भी रक्षाबंधन की कथा जुड़ी हुई है। राजा बलि ने 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग पर अधिकार जमाना चाहा। यह सब देख देवराज इंद्र घबरा गए और उन्होंने इस संबंध में भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण किया और राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे।

तब उन्होंने राजा बलि से तीन पग भूमि भिक्षा में मांगी। गुरु शुक्राचार्य के मना करने पर भी राजा बलि ने भगवान विष्णु को तीन पग भूमि दान करने का वचन दे दिया। इस पर भगवान ने तीन पग में सारा आकाश, पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस दान के बदले राजा बलि ने भगवान से हमेशा अपने सामने रहने का वचन ले लिया और भगवान राजा बलि के साथ रसातल में ही रहने लगे।

काफी समय बीतने के बाद भी जब भगवान नहीं लौटे। इससे लक्ष्मी जी बहुत परेशान थीं, इस पर नारद जी ने उनको एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षासूत्र बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान विष्णु को उपहार के तौर पर अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। यह प्रसंग भी रक्षाबंधन मनाने की वजह बना।

हुमायूं ने रानी कर्णावती के राखी की रखी थी लाज

मध्यकालीन युग में यह त्योहार समाज के हर हिस्से में फैल गया और इसका सारा श्रेय रानी कर्णावती को जाता है। उस समय एक–दूसरे का राज्य हथियाने के लिए चारों–ओर केवल मारकाट चल रही थी। उस समय मेवाड़ की राजगद्दी पर स्वर्गवासी महाराज की विधवा रानी कर्णावती बैठी थीं। गुजरात का सुल्तान बहादुर शाह उनके राज्य पर नजरें गड़ाए बैठा था। तब रानी ने हुमायूं को भाई मानकर राखी भेजी। हुमायूं ने बहादुर शाह से रानी कर्णावती के राज्य की रक्षा की और राखी की लाज रखी।

रक्षाबंधन के दिन पूरी होती है अमरनाथ की यात्रा

देशभर में अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है यह त्योहार। उत्तराखंड में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। अमरनाथ की सुप्रसिद्ध धार्मिक यात्रा गुरु पूर्णिमा से शुरू होती है और रक्षाबन्धन के दिन सम्पूर्ण होती है।

महाराष्ट्र में नारियल पूर्णिमा के नाम से है प्रसिद्ध

महाराष्ट्र में यह त्योहार नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं।

सामान्य राखियों से भिन्न होती हैं ये राखियां

राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बांधने का रिवाज है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुंदना लगा होता है। यह केवल भगवान को ही बांधी जाती है। चूड़ा राखी या लूंबा भाभियों की चूड़ियों में बांधी जाती है।

जनेऊधारी ब्राह्मणों के लिए है महत्वपूर्ण दिन

दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को ‘अवनि अवित्तम’ कहते हैं। जनेऊधारी ब्राह्मणों के लिये यह दिन बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्पण कर नया जनेऊ धारण किया जाता है। व्रज में हरियाली तीज (श्रावण शुक्ल तृतीया) से श्रावणी पूर्णिमा तक समस्त मन्दिरों एवं घरों में ठाकुर झूले में विराजमान होते हैं। रक्षाबंधन वाले दिन झूलन-दर्शन समाप्त हो जाते हैं।

Avinash Kumar Singh

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