काफी लंबे समय से यह चर्चा चल रही थी कि बैंक एनपीए में रहेंगे या नहीं। अब यह पूर्ण हो गयी है। सरकार ने एनपीए के संबंध में सबसे बड़ा सुधार किया है, जो जीएसटी जैसे मील के पत्थर से भी बड़ा है। ऐसा कहने के पीछे एक बहुत ही ठोस तर्क है और वह यह है कि आईबीसी भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था में इन्सॉल्वेंसी संस्कृति बनाता है जो पहले अनुपस्थित थी।
अब इस फैसले को लोग अलग-अलग नजरिये से देख रहे हैं। जिन पर बैंकों का अरबों डॉलर बकाया था, वे भारतीय न्यायिक प्रणाली में खामियों का उपयोग करते हुए वर्षों तक दिवालियापन के प्रस्तावों को घसीटते रहें हैं।
बैंकों का सकल एनपीए यानी फंसा कर्ज सितंबर 2022 तक बढ़कर 8.1 से 9.5 प्रतिशत तक पहुंच सकता है। इन कंपनियों और उनके प्रमोटरों को उबारने के लिए करदाताओं के अरबों डॉलर पैसे का इस्तेमाल किया गया और उद्यम के विफल होने के बावजूद उन्हें नियंत्रण खोने का भी कोई डर नहीं था। असफलता उद्यमिता का हिस्सा है, लेकिन जब आप असफल उद्यमियों को सफल उद्यमियों के समान मानते हैं, तो सफल होने का प्रोत्साहन ध्वस्त हो जाता है।
बैंकों का सकल एनपीए सितंबर 2021 में 6.9 प्रतिशत था। इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड ने इस समस्या को सफलतापूर्वक हल कर दिया है और इस बदलाव का परिणाम अब सिस्टम में दिखाई दे रहा है। बैंकों के वित्तीय प्रदर्शन पर आरबीआई की एक रिपोर्ट ने इस बदलाव को पकड़ा और स्वीकार भी किया है। आरबीआई की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले कुछ वर्षों में सकल गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों में गिरावट आई है।
आंकड़ों को देखा जाये तो एनपीए नौवें महीने में यह घटा क्रमश: 6.9 प्रतिशत और 2.3 प्रतिशत पर आ गया, निजी क्षेत्र के बैंकों में संपत्ति गुणवत्ता में कमी की दर अधिक होने से फंसा कर्ज अनुपात बढ़ा है।
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