किसान आंदोलन इन दिनों केंद्र सरकार से लेकर प्रदेश सरकार के राजनीतिक पन्नों में चर्चा का विषय बना हुआ है सोशल मीडिया को या फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में किसान आंदोलन का रुक आए दिन सर चढ़ कर बोल रहा है।
किसान आंदोलन ने सबसे अधिक प्रदेश की राजनीति पर प्रहार किया है। चाहे जिस भी प्रधानमंत्री है सत्तारूढ़ दल के हाथ किसान आंदोलन की आग में जोर से हैं वह दोबारा सत्ता का मोह छोड़ गायब हो गए। यह सिलसिला पूर्व सी.एम. भजनलाल से शुरू हुआ था और ओम प्रकाश चौटाला तक बराबर जारी रहा।
भले ही पिछले दो-तीन माह से लोगों ने सर्दी की कपकपाहट महसूस कर रही हो, लेकिन यह बात भी कोई नहीं झुठला सकता है कि कृषि कानून के विरोध में इस समय पूरा प्रदेश ही आंदोलन की तपिश में जल रहा है।
भले ही किसान आंदोलन की शुरूआत पंजाब के किसानों ने की लेकिन अब दिल्ली के सिंघु और टिकरी बॉर्डर से लेकर यू.पी. के गाजीपुर बॉर्डर तक हर जगह हरियाणा के किसानों की बहुत बड़ी हिस्सेदारी है। हरियाणा के इतिहास का यह सबसे लंबा किसान आंदोलन है।
इस बार नए कृषि कानूनों के विरोध में प्रदेश में 78 दिन से भी ज्यादा समय से जो किसान आंदोलन चल रहा है उसकी कमान अब खाप पंचायतों ने अपने हाथों में ले ली है। पहली बार प्रदेश में किसान आंदोलन की कमान खाप पंचायतों के हाथों में आई है।
इसी कारण किसान आंदोलन का असर अतीत में हुए किसान आंदोलनों से कहीं ज्यादा है। खाप पंचायतें प्रदेश में अपना एक अलग प्रभाव और वजूद रखती हैं। यही प्रभाव और वजूद हरियाणा में अब किसान आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत बन गया है।
हरियाणा में किसान आंदोलनों का प्रदेश की राजनीति पर बहुत गहरा असर रहा है। 1991 में भजनलाल के नेतृत्व में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी थी। भजनलाल के शासनकाल में बिजली की दरों में वृद्धि के खिलाफ भारतीय किसान यूनियन ने आंदोलन शुरू किया था।
यह आंदोलन करनाल के निसिंग से शुरू हुआ था और निसिंग में पुलिस ने किसानों पर फायरिंग की थी। इसके बाद पूरे प्रदेश में किसान आंदोलन की आग सुलग उठी थी। भजनलाल और उनके परिवार का किसानों ने उस समय बहिष्कार करने का ऐलान किया था।
किसान आंदोलन से प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार काफी कम हुआ और 1996 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को भजनलाल के नेतृत्व में करारी हार का सामना करना पड़ा था। कांग्रेस को केवल 9 सीटों से संतोष करना पड़ा था।
1996 में बंसीलाल के नेतृत्व में हविपा-भाजपा गठबंधन की सरकार बनी थी। इस सरकार को भी महेंद्रगढ़ के मंढियाली से शुरू हुए किसान आंदोलन की आंच में बुरी तरह से झुलसना पड़ा था। मंढियाली से शुरू हुए किसान आंदोलन की आग कैथल के कलायत, जींद के उचाना तक पहुंच गई थी।
2 महीने तक प्रदेश में किसान आंदोलन के कारण हालात बहुत गंभीर हो गए थे। यह आंदोलन बिजली बिलों के मुद्दे पर ही हुआ था और बाद में बंसीलाल सरकार के गले की फांस बन गया था। किसान आंदोलन ने बंसीलाल और उनकी हरियाणा विकास पार्टी का जनाधार लगभग समाप्त कर दिया था। 1999 में बंसीलाल सरकार गिर गई थी।
फरवरी 2000 में हुए विधानसभा चुनाव में बंसीलाल और हविपा को करारी हार का सामना करना पड़ा था। साल 2000 में हुए विधानसभा चुनाव में ओमप्रकाश चौटाला के नेतृत्व में इनैलो-भाजपा गठबंधन की सरकार बनी थी।
बंसीलाल सरकार के शासन में चले किसान आंदोलन दौरान इनैलो सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला अपनी हर सभा में यह कहते थे कि उनकी सरकार बनने पर न तो बिजली का मीटर होगा और न ही मीटर रीडर होगा।
सत्ता में आने के बाद ओमप्रकाश चौटाला की सरकार ने किसानों से बिजली के बकाया बिल वसूलने के लिए किसानों पर दबाव बनाया। किसान बिल जमा नहीं करवाने पर अड़ गए। इसी मुद्दे पर जींद के कंडेला गांव में साल 2002 और 2004 में बड़े किसान आंदोलन हुए थे।
कंडेला आंदोलन-2 दौरान गुलकनी गांव के पास पुलिस फायरिंग में 7 किसानों की मौत हो गई थी। चौटाला के शासन में हुए किसान आंदोलनों ने प्रदेश की राजनीति को बहुत गहराई तक प्रभावित किया था।
इन किसान आंदोलनों ने प्रदेश से इनैलो का जनाधार उस किसान वर्ग से लगभग समाप्त कर दिया था जिसके दम पर इनैलो साल 2000 के विधानसभा चुनाव में सत्ता में आई थी। कंडेला के किसान आंदोलन दौरान कांग्रेसी नेता भूपेंद्र हुड्डा किसानों के साथ खड़े हुए थे।
उन्होंने कंडेला से दिल्ली तक की पदयात्रा शुरू की थी। इसी पदयात्रा ने हुड्डा को प्रदेश का सी.एम. 2005 के विधानसभा चुनाव के बाद बनाने में अहम भूमिका निभाई थी। 2005 में विधानसभा चुनाव हुए तो किसान आंदोलन की आग में इनैलो के हाथ पूरी तरह से झुलस गए थे और तब सत्तारूढ़ दल इनैलो को महज 9 विधानसभा सीटों पर ही जीत हासिल हो पाई थी।
किसान आंदोलनों का हरियाणा की राजनीति पर बहुत गहरा असर होने के 2 प्रमुख कारण हैं। पहला कारण यह है कि हरियाणा में किसान और खेती करने वालों की आबादी 50 प्रतिशत से ज्यादा है। 30 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो भले ही खेती नहीं करते लेकिन वह खेती से सीधे जुड़े हुए हैं।
इतने बड़े वर्ग की नाराजगी मोल लेकर कोई भी राजनीतिक दल या सी.एम. किसान आंदोलन की आग से अपने हाथ नहीं बचा पाया है। दूसरा कारण यह है कि किसान लंबा आंदोलन करने में सक्षम हैं। हरियाणा के किसानों ने बंसीलाल और ओमप्रकाश चौटाला जैसे सबसे सख्त प्रशासक समझे जाने वाले सी.एम. के सामने भी आंदोलन में कभी हथियार नहीं डाले। किसान के पास आंदोलन करने के लिए जरूरी संख्या बल और मजबूत जज्बा है।
1991 से अब तक केवल भूपेंद्र हुड्डा रहे अपवाद
हरियाणा में 1991 से अब तक जितने भी सी.एम. रहे, भूपेंद्र हुड्डा को छोड़कर सभी को बड़े किसान आंदोलनों का सामना करना पड़ा है। 1991 में सी.एम. बने भजनलाल को 1993 से 1996 तक किसान आंदोलनों का सामना करना पड़ा। 1996 में सी.एम. बने बंसीलाल को 1998 तक किसान आंदोलनों की आंच सहनी पड़ी।
2000 में सी.एम. बने ओमप्रकाश चौटाला को साल 2002 से 2004 तक लगातार किसान आंदोलनों का सामना करना पड़ा। 2005 से 2014 तक प्रदेश के सी.एम. रहे भूपेंद्र सिंह हुड्डा ही इस दौरान ऐसे सी.एम. रहे जिनके शासन में कभी किसान आंदोलन नहीं हुआ।
इसका बड़ा कारण यह रहा कि भूपेंद्र हुड्डा ने पहले तो सी.एम. बनते ही किसान आंदोलनों की जड़ बिजली के बकाया बिलों का माफ कर दिया और दूसरे भाकियू के तत्कालीन नेता घासीराम नैन और अन्य के साथ संबंध काफी मधुर रखे।