हमारे देश में बुजुर्गों को काफी सम्मान दिया जाता है। सम्मान काफी ज़रूरी भी होता है। लेकिन एक बुजुर्ग दंपती को लोअर बर्थ ना देना रेलवे को मंहगा पड़ गया है। रेलवे की गाइडलाइन दिव्यांग, बुजुर्ग यात्रियों का विशेष ख्याल रखने की बात करती है। साथ ही आरक्षित कोच में रात के समय यात्रियों को सुरक्षित गंतव्य पर उतारने और स्टेशन आने से पहले उन्हें सतर्क करने की बात भी कहती हैं। लेकिन कई बार रेलवे कर्मचारी इन नियमों की अनदेखी करते है।
कर्मचारी खुद को खुदा समझ कर अपने ही नियम बना देते हैं। इस से सरकार के साथ – साथ आम जनता को परेशानी होती है। एक मामले में बुजुर्ग और दिव्यांग दंपती को लोअर बर्थ न उपलब्ध कराने तथा गंतव्य से करीब सौ किलोमीटर पहले उतारने के मामले में रेलवे को घोर लापरवाही और सेवा मे कमी का जिम्मेदार मानते हुए तीन लाख रुपये मुआवजा देने का आदेश हुआ है।
राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग ने 10 साल पुराने एक मामले में रेलवे को एक बुजुर्ग दंपती को लोअर बर्थ नहीं देने पर तीन लाख रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया है। राष्ट्रीय आयोग ने कहा कि फोरम ने हर पहलू पर विस्तार से विचार किया है और उसका फैसला साक्ष्यों पर आधारित है। राज्य आयोग ने भी फोरम के फैसले को परखने के बाद सही ठहराया है। फैसले में कोई कानूनी खामी नहीं है।
उपभोक्ता के काफी अधिकार होते हैं जिनसे वह अकसर अपनी समझ के कारण अछूता रह जाता है। बहरहाल, रेलवे की लापरवाही का यह मामला कर्नाटक का है। चार सितंबर 2010 को बुजुर्ग दंपती सोलापुर से बिरूर जाने के लिए थर्ड एसी में दिव्यांग कोटे से सीट आरक्षित कराई क्योंकि दंपती में एक व्यक्ति दिव्यांग था। उन्हें रेलवे से लोअर बर्थ आवंटित नहीं हुई। दंपती ने भी टीटीई से लोअर बर्थ देने का आग्रह किया लेकिन टीटीई ने लोअर बर्थ नहीं दी।
सरकारी कर्मचारियों को कानून पालन करना चाहिए न कि कानून बनाना चाहिए। अपनी जिद्द में ऐसे कर्मचारी सरकार और विभाग का नाम खराब करते हैं।