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कहानी एक ऐसे आदिवासी की जिसके सम्मान में आज भी रुक जाती है ट्रेन

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हमारे देश के इतिहास में कई ऐसी कहानियां हैं जिनको जानकार हमें गर्वित महसूस होता है। गर्वित हों भी क्यों न हमारा देश वीरों देश जो है। इतिहास में एक से बढ़कर एक योद्धा हुए हैं। देश की ख़ातिर इन क्रांतिकारियों ने अपने प्राण तक न्योछावर कर दिये। 1857 की क्रांति से पहले से लेकर देश आज़ादी तक, कई क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अपने अपने तरीके से जंग लड़ी थी। अंग्रेज़ों से जंग लड़ने वाले एक क्रांतिकारी ‘टंट्या भील’ भी थे।

कई लोगों ने इनके बारे में सुना भी नहीं होगा क्योंकि हमें कभी पढ़ाया ही नहीं इनके बारे में। भील का जन्म 1840 के क़रीब मध्य प्रदेश के खंडवा में हुआ था। टंट्या भील का असली नाम ‘टण्ड्रा भील’ था। वो एक ऐसे योद्धा थे जिसकी वीरता को देखते हुए अंग्रेज़ों ने उन्हें ‘इंडियन रॉबिन हुड’ नाम दिया था।

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भारत की जिस पावन धरती पर हम रहते हैं वह एक ऐसी धरती है जिसमें लाखों भारतियों का खून शामिल है। देश की आजादी के जननायक और आदिवासियों के हीरो टंट्या भील की वीरता और अदम्य साहस से प्रभावित होकर तात्या टोपे ने उन्हें ‘गुरिल्ला युद्ध’ में पारंगत बनाया था। वो ‘भील जनजाति’ के एक ऐसे योद्धा थे, जो अंग्रेज़ों को लूटकर ग़रीबों की भूख मिटाने का काम करते थे।

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आज भी उनके इलाके में उन्हें भगवान की तरह पूजा जाता है। उनकी कई घरों में पूजा भी होती है। वह ग़रीब आदिवासियों के लिए मसीहा बनकर उभरे। उनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें आलौकिक शक्तियां प्राप्त थीं। इन्हीं शक्तियों के सहारे टंट्या एक ही समय में 1700 गांवों में सभाएं करते थे। टंट्या की इन शक्तियों के कारण अंग्रेज़ों के सैनिक भी उन्हें पकड़ नहीं पाते थे। टंट्या देखते ही देखते अंग्रेज़ों के आंखों के सामने से ओझल हो जाते थे।

उनकी शक्तियों के आगे सभी फीके पड़ जाते हैं। अपने समाज के लिए हमेशा उन्होंने खुद को समर्पित किया है। लेकिन कुछ लोगों की मिलीभगत के कारण वो अंग्रेज़ों की पकड़ में आ गए और 4 दिसम्बर 1889 को उन्हें फांसी दे दी गई। फांसी के बाद अंग्रेज़ों ने ‘टंट्या मामा’ के शव को इंदौर के निकट खंडवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी रेलवे स्टेशन के पास ले जाकर फेंक दिया गया।

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पैसों की लालच के आगे सभी अपना ईमान बेच देते हैं। कोई भी किसी का साथी नहीं बना रहता है पैसों के आगे। जहां उन्हें फेंका गया था उसी जगह को ‘टंट्या मामा’ की समाधि स्थल माना जाता है। आज भी सभी रेल चालक पातालपानी पर ‘टंट्या मामा’ को सलामी देने कुछ क्षण के लिये ट्रेन रोकते हैं।

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