स्वाद बढ़ाने के लिए किए गए कई एक्सपेरिमेंट, 7 साल लग गए जुबां पर स्वाद चढ़ने में

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माना जाता है कि सावन में बनने वाली मिठाई घेवर की उत्पत्ति राजस्थान में हुई है। यद्यपि कुछ लोग इसे पर्शिया या ईरान का व्यंजन भी बताते हैं। लेकिन घेवर पर मलाई यानी रबड़ी डालने की शुरुआत अम्बाला से हुई थी। करीब 60 साल पहले अम्बाला में वामन द्वादशी के मेले के दौरान यूपी के कारीगरों ने वहां घेवर लांच किया था। उस घेवर को मैदे और घी से तैयार किया जाता था और बूरा डालकर उसे मीठा किया जाता था।

पहली बार घेवर पर एक्सपेरिमेंट 1962–63 में किया गया था। लोगों की जुबान पर इसका स्वाद चढ़ने में कई साल लग गए। शुरूआत में तो घेवर को फ्री में भी बांटा गया। अब उत्तरी भारत का हर हलवाई बाजार में मलाई घेवर बनाता है। अम्बाला में बनने वाले मलाई घेवर की डिमांड देश के कई हिस्सों में है।

स्वाद बढ़ाने के लिए किए गए कई एक्सपेरिमेंट, 7 साल लग गए जुबां पर स्वाद चढ़ने में

7 साल तक फ्री बांटा घेवर

अम्बाला सिटी में ‘दाऊजी’ स्वीट्स शॉप के संचालक महेश गोयल ने बताया कि उनके पिता स्व. राजिंद्र गोयल और ताया चेतन लाल पहली बार 1952 में मेरठ से अम्बाला वामन द्वादशी मेले में समाेसे- जलेबी का स्टॉल लगाने आए थे। फिर हर साल यहां आने लगे। 1957-58 में उन्होंने यहां दुकान ली। त्योहारों में वह यहां 3 महीने रहते थे और फिर जयपुर में गणगौर मेले के दौरान काम करते। 1962 में उन्होंने सोचा कि अब उन्हें एक ही जगह रहना चाहिए। पिता अम्बाला में रह गए और ताया जी जयपुर चले गए। पिता राजिंद्र गोयल ने 1962 के दौरान पहली बार घेवर बनाना शुरू किया।

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उस समय कढ़ाई के अंदर हाथ से छींटे डालकर घेवर तैयार होता था। यह साइज में बहुत बड़ा होता था इसलिए उसे काटकर लोगों में बांटा जाता था। फिर पिता ने मलाई वाले घेवर की शुरुआत की। कभी घेवर पर रबड़ी तो कभी कलाकंद की बर्फी लगा देते। उस समय मुफ्त में राहगीरों काे टेस्ट करवाने के लिए पत्तलों पर घेवर खिलाते थे। करीब 7-8 साल तक ऐसे ही लाेगाें काे टेस्ट करवाने के लिए घेवर बनाते रहे। जब लाेगाें काे इसका टेस्ट पसंद आने लगा तो उन्होंने बेचना शुरू कर दिया। पिता भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम के भक्त थे। इसलिए उन्होंने बलराम के नाम पर ही दुकान का नाम दाऊजी रखा।

दूध बैन होने पर काजू से बनाया घेवर

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महेश ने यह भी बताया कि पहली बार जब 12 घेवर बिके तो बुजुर्गों ने खुशी जाहिर करने के लिए दावत तक रख दी थी। राजिंद्र गोयल घेवर के लिए बहुत से एक्सपेरिमेंट किया करते थे। कभी कलाकंद तो कभी रबड़ी लगाकर घेवर तैयार करते। कढ़ाई के बाद 1972 में पहली बार सांचा भी तैयार किया गया जिसमें घेवर बनाया जाता था। उन्होंने आगे बताया कि 1970 के दौरान सरकार ने जून-जुलाई में दूध की बिक्री बैन कर दी थी। उस समय दूध से खाेया या अन्य मिठाई बनाने पर चालान तक कट जाते थे। तब पिता राजिंद्र काजू काे सिलबट्टे पर पीसकर घेवर काे सजाने के लिए पेस्ट तैयार करते थे। यहां 4 से 9 इंच तक का घेवर बनता है।

पूरी–सब्जी से की शुरुआत

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शहर के हलवाई बाजार में स्थित नत्थू राम के घेवर के लिए भी लंबी लाइन लगती है। नत्थू राम के पाेते राकेश कुमार बताते हैं कि दादा गांव लदाना से यहां आए थे। परिवार के पास जमीन-जायदाद थी लेकिन वह कुछ अलग करना चाहते थे। सबसे पहले उन्होंने अम्बाला में काम सीखा और फिर अपनी दुकान लेकर पूरी-सब्जी का काम शुरू किया। लेकिन कुछ समय बाद पूरी का काम बंद कर दिया और सूत के लड्डू बनाने लगे जो फेमस हुए।

दूर–दूर से आते थे ग्राहक

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दादा काे घूमने का बहुत शाैक था। वे हर जगह की खास मिठाई के बारे में जानने के लिए इच्छुक रहते थे। इसलिए वह अनेक स्थानाें पर घूमते रहते थे। लगभग 50 साल पहले सीखकर घेवर बनाना शुरू किया। लोगों काे घेवर का स्वाद इतना पसंद आया कि वे दूर-दूर से दुकान पर घेवर लेने आते थे। दादा के साथ पिता राज कुमार ने भी हलवाई का काम सीखकर काम में हाथ बंटाना शुरू किया। अब राजकुमार के साथ–साथ उनके बेटे राकेश, मुकेश भी दादा की विरासत संभाल रहे हैं।

सालों से बरकरार है स्वाद

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राकेश ने बताया कि जून से घेवर का काम शुरू हाे जाता है और दशहरे वाले दिन तक घेवर बनता है। उसके बाद वे घेवर की जगह तिलभुग्गा व गजरेला बनाते हैं। पहले घेवर कंचक और मंदिर के लिए निकाला जाता है। राकेश ने बताया कि दादा नत्थू राम जिस तरह से घेवर बनाते थे उसी तरीके का इस्तेमाल आज भी हो रहा है। इसी वजह से 50 सालाें से इसका स्वाद बरकरार है। राेज 35 किलाे मैदे का घेवर (जिसमें दूध भी डलता है) और 2 क्विंटल दूध की रबड़ी तैयार की जाती है।