भारत में हर मेडल पर मन रहा है जश्न वहीं चीन में खिलाड़ी घोषित हो रहे हैं गद्दार

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टोक्यो ओलंपिक हो चुका है, और इस समय चीन की पौ बारह है। 38 स्वर्ण पदक, 32 रजत पदक और 18 कांस्य पदकों के साथ ये देश दूसरे स्थान पर है अमेरिका 39 स्वर्ण पदकों के साथ शीर्ष स्थान पर है, जबकि मेजबान देश जापान 27 स्वर्ण पदक, 14 रजत और 17 कांस्य पदक के साथ तीसरे स्थान पर है। फिर भी चीन और उसकी जनता इस प्रदर्शन से भी संतुष्ट नहीं है।

आप माने या न माने, लेकिन चीन के लिए टोक्यो ओलंपिक में 38 स्वर्ण पदक भी कम पड़ रहे हैं। यही नहीं, जो भी पदकधारी स्वर्ण पदक से नहीं ला रहा है, उसे चीनी हेय की दृष्टि से देख रहे हैं। चीनी सोशल मीडिया वीबो पर अगर चीनियों की प्रतिक्रिया पर ध्यान दें, तो उसके अनुसार गोल्ड मेडल से यदि चीनी कुछ भी कम लाते हैं, तो इसका अर्थ है कि एथलीट में ‘देशभक्ति’ की कमी है।

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चौंकिए मत, ये शत प्रतिशत सत्य है। उदाहरण के लिए टेबल टेनिस में मिक्स्ड डबल्स को ही देख लीजिए। टेबल टेनिस वो खेल है, जहां चीनियों का वर्चस्व व्याप्त है। मिक्स्ड डबल्स की श्रेणी में चीन ने रजत पदक प्राप्त किया। परंतु ये रजत पदक भी चीनियों के पर्याप्त नहीं था, और उन्होंने चीनी सोशल मीडिया साइट वीबो ‘Weibo’ पर चीनी जोड़ी लियू शिवेन और शू शिन को जमकर ट्रोल किया, सिर्फ इसलिए क्योंकि चीन जापान से फाइनल में हार गया।

बीबीसी के रिपोर्ट के अंश अनुसार, “चीनियों पर इस बार उत्कृष्ट प्रदर्शन करने का दबाव पहले से कहीं अधिक है। गोल्ड से कुछ भी कम देश से गद्दारी के तौर पर देखा जा रहा है। लियू शिवेन और शू शिन ने जापान से मिक्स्ड डबल्स का फाइनल्स हारने के बाद रोते हुए देश से माफी मांगी। उनकी पराजय से कई लोग चीन में नाराज है, और वीबो पर उन्होंने यहाँ तक लिखा है कि इस जोड़े ने देश का ‘नाम बदनाम किया है’।

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परंतु ये आक्रोश केवल जापान या टेबल टेनिस तक सीमित नहीं रहा। बीबीसी के ही रिपोर्ट में आगे बताया गया, “चीन के ली जुनहुई और लियू युचेन को चीन के सोशल मीडिया पर केवल इसलिए निशाने पर लिया गया क्योंकि वो बैडमिंटन डबल्स के फ़ाइनल में ताइवान के खिलाड़ियों से हार गए थे। एक यूजर ने अपनी भड़ास निकालते हुए अपने वीबो अकाउंट पे पोस्ट किया, “तुम दोनों सो रहे थे क्या? जरा सी भी मेहनत नहीं की! हद है!”

बता दें कि ताइवान और चीन में दशकों से तनातनी व्याप्त है। ताइवान अपने आप को एक स्वतंत्र देश मानता है, जबकि चीन किसी भी प्रकार से ताइवान को अपने आप में जबरदस्ती मिलाना चाहता है। ऐसे में ताइवान से किसी भी स्तर के खेल में हार चीनियों के लिए स्वीकार्य नहीं है, ओलंपिक में तो भूल जाइए।

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लेकिन आपको क्या लगता है, चीनियों का यह विद्वेष केवल उनके लिए सीमित है, जो ओलंपिक में स्वर्ण पदक से कम लाते हैं? यदि चीनी प्रशासन के नीतियों का पालन नहीं किया जाए, तो ओलंपिक में स्वर्ण पदक लाने वालों तक को नहीं छोड़ा जाता। विश्वास नहीं होता तो यांग कियान के ही मामले को देख लीजिए।

टोक्यो ओलंपिक में चीन की यांग कियान सबसे पहली स्वर्ण पदकधारी थी। उन्होंने शूटिंग में महिला की 10 मीटर एयर राइफल स्पर्धा में स्वर्ण पदक पर निशाना साधा था। परंतु उन्हें भी चीनी प्रशासन के ऑनलाइन गुंडों ने नहीं छोड़ा। दरअसल, वीबो पर उन्होंने एक बहुत पुराना पोस्ट डाला था, जहां पर वह अपने Nike के जूतों का कलेक्शन दिखा रही थीं।

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तो इसमें गलत क्या है? दरअसल, Nike उन चंद कंपनियों में शामिल है, जो चीन की जी हुज़ूरी नही करती। कुछ ही महीनों पहले Nike ने ये स्पष्ट किया था कि जब तक चीन यह स्पष्ट नहीं कर देता कि शिनजियांग से जो कॉटन वो भेजता है, उसके लिए उसने शिनजियांग के निवासियों, विशेषकर उइगर मुसलमानों का शोषण नहीं किया हो, तब तक वह शिनजियांग के कॉटन का उपयोग नहीं करेगा। यही कारण है कि यांग द्वारा Nike के जूते दिखाने के लिए उन्हें निशाने पर लिया गया, और उनको डराया धमकाया भी गया, जिसके कारण उन्हें पोस्ट तक डिलीट करना पड़ा।

इसी पर विश्लेषण करते हुए जी न्यूज के प्रमुख संपादक और पत्रकार सुधीर चौधरी ने चीन के संकुचित राष्ट्रवाद को रेखांकित किया, और उसकी भारत के राष्ट्रवाद से तुलना करते हुए कहा, “असली राष्ट्रवाद ना दक्षिणपंथी होता है और ना वामपंथी होता है। असली राष्ट्रवाद सिर्फ निस्वार्थ होता है, जो बिना किसी लालच के अपने खिलाड़ियों, अपने सैनिकों और अपने देश से प्यार करता है, वही असल में राष्ट्रवादी होता है।

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बैडमिंटन में Bronze Medal जीतने वाली पीवी सिंधु का भी शानदार स्वागत हुआ। जब वो अपने घर पहुंची तो पीवी सिंधु और उनके कोच की आरती उतारी गई।

“पीवी सिंधु के कोच दक्षिण कोरिया के हैं। फिर भी उनका स्वागत किसी हीरो की तरह किया गया। ये सब बताता है कि हम अपने खिलाड़ियों को सम्मान देना जानते हैं, फिर चाहे वो Bronze Medal जीतें या सिल्वर-गोल्ड, या फिर अच्छा मुकाबला करके हार ही क्यों ना जाएं”

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सुधीर चौधरी ने कोई गलत बात नहीं कही है। चीन ओलंपिक को भी स्पर्धा के दृष्टि से नहीं, अपितु  वैश्विक वर्चस्व के दृष्टिकोण से देखता है, जहां पर वह किसी भी कीमत पर वर्चस्व जमाना चाहता है। इसके लिए चाहे कोई भी तरीका अपनाना पड़े, लेकिन जब तक उनका देश शीर्ष पर नहीं होगा, तब तक चीनी प्रशासन को चैन नहीं मिलेगा।

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लेकिन वो कहते हैं न, लालची को कितना भी मिले उसके लिए वो कम ही होगा। इस समय चीन का हाल भी वही है। टोक्यो ओलंपिक में शीर्ष पर होना भी उसके लिए पर्याप्त नहीं है, और चीनी प्रशासन एवं उसकी कम्युनिस्ट जनता अब इसकी भड़ास अपने खिलाड़ियों पर निकाल रही है।