समाज की खास शख्सियत ने साझा किए अपने अनुभव, भेदभाव मुक्त समाज देगा विकास की दस्तक

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वैसे तो देशभर में यह राग अलापे जाते हैं कि लड़का लड़की समान है। अब सभी को समानता का अधिकार दिया जाता है। मगर यह सच है या लेख, या यूं कहें कि भाषणों के लिए प्रयोग किए जाने वाले एक भाषण शैली के लिए उपयुक्त है। मगर असल में आपको क्या लगता है कि हमारा समाज सभी को समानता का अधिकार देता है, अगर नहीं तो क्यों?

ज्यादातर महिलाएं खुद भी यही समझती हैं कि हमारी आवाज का कोई महत्व नहीं है। यह सोच बदलकर महिलाओं को अपनी आवाज उठानी होगी। हमने 500 से ज्यादा किताबें महिलाओं के लिए प्रकाशित की हैं। महिलाओं से जुड़ी सबसे अच्छी किताबों की बात करें तो वो थी ‘शरीर की जानकारी’।

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यह किताब राजस्थान के गांव की महिलाओं ने एकत्रित होकर वर्कशाॅप करके बनाई थी। इसमें बताया कि महिला का शरीर बचपन से लेकर बुढ़ापे तक कैसे बदलता है। महिलाएं हमेशा से अपनी लड़ाई लड़ती आ रही हैं। पहले शिक्षा के लिए लड़ाई लड़ी। फिर उच्च शिक्षा और मेडिकल शिक्षा के लिए तो अब आर्मी में जाने के लिए लड़ रही हैं। नौकरी करने से लेकर ससुराल में सम्मान पाने के लिए लड़ाई लड़ती हैं। ,

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आखिर किस प्रकार विकसित देश में समानता मिले इसके बारे में बात करते हुए और अपने विचारों को व्यक्त करते हुए ओपी जिंदल ग्रुप की चेयरपर्सन एमिरेटस सावित्री जिंदल ने बताया कि सर्वप्रथम देश के विकास के लिए जरूरी है कि समाज भेदभाव मुक्त हो। बेटियों को भी परिवार में बेटों की तरह शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं मिलें। बेटियों को भी बराबरी का अवसर मिले, ताकि वे राष्ट्र निर्माण में योगदान कर सकें।

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उन्होंने यह बताया कि वह इस बात से बेहद खुश हुई कि अब हमारी बेटियां भी एनडीए में प्रवेश पा सकेंगी। हाल में टोक्यो ओलिंपिक में हमारी बेटियों ने पदक जीतकर यह साबित किया कि वे किसी से कम नहीं हैं। ओपी जिंदल साहब कहते थे, ‘बेटियां पढ़ती हैं तो दो घर बसते हैं और बेटा पढ़ता है तो एक घर’। इसलिए हमेशा बेटियों को प्रोत्साहित करना चाहिए। वैसे बचपन से ही मेरे मन में महिला सम्मान का भाव था।

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मेरी भाभियां घूंघट करती थीं, जिसका मैं विरोध करती थी। मैं कहती थी कि घूंघट के कारण गिर जाओगी तो क्या होगा? उस समय तो नहीं, लेकिन मेरी शादी के बाद दोनों भाभियों ने घूंघट छोड़ दिया। समाज को भी घूंघट के बारे में फिर से विचार करने की जरूरत है। शिक्षा किसी भी व्यक्ति के उत्थान का बड़ा माध्यम है। इसलिए बेटियों को गुणवत्तायुक्त शिक्षा देना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। मेरा जन्म असम के तिनसुकिया में रासिवासिया परिवार में हुआ था।

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प्रसिद्ध महिला उद्योगपत, सावित्री जिंदल बताती है कि उनका संयुक्त परिवार था। उन्होंने कभी किसी की ऊंची आवाज नहीं सुनी। शादी के बाद बच्चों पर ही ध्यान दिया। ओपी जिंदल साहब के निधन के बाद मुझे एक बार लगा कि सबकुछ खत्म हो गया। 2005 में मैंने घर की ड्योढ़ी से बाहर पैर रखा तो पहली बार सब नया था। मैं इससे पहले घरबार और बच्चों में व्यस्त थी, लेकिन राजनीति में आने के बाद हरियाणा परिवार की जिम्मेदारी भी कंधों पर आ गई।

लेकिन मैंने ठान लिया था कि जीवन में चुनौतियां तो हर पड़ाव पर आएंगी, मुझे उनका सामना करके आगे बढ़ना है। उस समय मेरे बच्चों ने मेरे साथ जिस तरह व्यवसाय को संभाला और आगे बढ़ाया, यह मेरे लिए संतोष की बात है। मैं अंतर्मुखी थी, घर से बाहर जाना-आना नहीं होता था, लेकिन राजनीति में आने के बाद धीरे-धीरे मुखर हुई और लोगों के प्रोत्साहन से मुझे ताकत मिली। मेरा मानना है कि महिला चाहे तो कुछ भी कर सकती है। इसके लिए केवल इच्छाशक्ति होनी चाहिए। –

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पद्मश्री नारीवादी प्रकाशक/लेखिका, उर्वशी बुटालिया के हिसाब से महिलाओं को रोज इस बात का सामना करना पड़ता है कि उन्हें समाज में समानता नहीं मिल रही। मैंने दिल्ली में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस में पहली नौकरी शुरू की थी। 2 साल में ही स्पष्ट हो गया था कि यहां मेरे लिए रास्ते बहुत सीमित हैं। पुरुषों के लिए रास्ते ज्यादा हैं। अधिकारियों को लगता था कि यह तो लड़की है, कुछ समय बाद शादी करके चली जाएगी।

महिलाओं को जब भी कहीं बाहर जाना होता था तो सुनते थे कि अकेली बाहर कैसे जाएं। बसों में महिलाओं का जाना भी बड़ी परेशानी थी। आज भी देखें तो महिलाओं को लेकर रोज नए-नए बयान सामने आते हैं। मंत्री तक महिलाओं के कपड़ों पर आपत्ति जताते हैं।

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ऐसे में कहां से महिला को बराबरी मिलेगी। जब दिल्ली में महिला आंदोलन शुरू हो रहा था, तो मैं भी उससे जुड़ी। फिर लगा कि महिलाओं द्वारा महिलाओं के लिए लिखी किताबें छापें। कंपनी में बात की, पर बात नहीं बनी। खुद प्रकाशन शुरू किया। जब महिलाओं के लेख खोजने निकले तो हमें ज्यादा मिले नहीं। महिलाएं कम लिखती थीं, कुछ ने लिखकर छिपा रखे थे तो कुछ ने लिखकर फाड़ दिए थे।