विश्व समभाव दिवस के शुभ अवसर पर,सतयुग दर्शन वसुन्धरा पर,समभाव समदृष्टि की महत्ता को दर्शाते हुए आयोजित किया गया, एक विशेष कार्यक्रम

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 विश्व समभाव दिवस के शुभ अवसर पर,सतयुग दर्शन वसुन्धरा पर,समभाव समदृष्टि की महत्ता को दर्शाते हुए आयोजित किया गया, एक विशेष कार्यक्रम

विश्व समभाव दिवस के शुभ अवसर पर,सतयुग दर्शन वसुन्धरा पर,महत्ता को दर्शाते हुए आयोजित किया गया, एक विशेष कार्यक्रम,सबकी जानकारी हेतु,एक मानव के, समभाव-समदृष्टि की महत्ता को जानने-समझने व, तदुपरान्त त उसे अमल में लाने हेतु सतयुग दर्शन ट्रस्ट द्वारा, प्रतिवर्ष 7 सितम्बर को, विश्व समभाव दिवस के नाम से मनाया जाता है। इस वर्ष भी कोविड-19 सम्बन्धी प्रशासनिक नियामवली को दृष्टिगत रखते हुए सीमित संख्या में विशिष्ट अतिथियों यथा दिल्ली एन.सी.आर के स्कूलों के प्रधानाचार्यों/अध्यापकगणों व अंतर्राष्ट्रीय मानवता-ई-ओलम्पियाड के विजेताओं के संग, सतयुग दर्शन के विशाल सभागार में यह कार्यक्रम आयोजित किया गया।

इसके अतिरिक्त इस अवसर पर बतौर चीफ गेस्ट, फरीदाबाद शहर के कमीशनर श्री यशपाल यादव, जे सी० बोस यूनिवर्सटी के कुलपति प्रोफेसर दिनेश कुमार, डी ई ओ श्रीमती रीतू चौधरी भी उपस्थित थे। 
इस दिवस पर सभी सजनों को संबोधित करते हुए, ट्रस्ट के प्रवक्ता ने कहा कि मौजूदा समय में जब आधुनिक भौतिकवादी समाज-धर्म, जाति, पंथों आदि के अलगाववाद के टकराव में फँसा हुआ है, ऐसे में सतयुग दर्शन ट्रस्ट, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित अपने विशिष्ट मानवता-ई-ओलम्पियाड द्वारा समाज का विखंडन करने वाली इन तमाम अवधारणों को लाँघ कर, सर्वोच्च मानव धर्म व समभाव अपनाने का आवाहन दे, पारस्परिक भेदभावों व झगड़ों को मिटाने का व परस्पर भाईचारे, एकता व एक अवस्था में ढ़लने का संदेश फैलाने का भरसक प्रयास कर रहा है। 

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इसी संदर्भ में समभाव-समदृष्टि का महान महत्त्व बताते हुए ट्रस्ट के प्रवक्ता ने आगे बताया कि समता ही योग है यानि आत्मा-परमात्मा की एक अवस्था का प्रतीक है। समता मूलाधार है-समानता, एकरूपता, निष्पक्षता व धीरता की। इससे मन में विषमता नहीं पनपती। इसीलिए सतवस्तु के कुदरती ग्रन्थ के अनुसार समभाव नज़रों में करने पर, मनुष्य के हृदय में, सजन-वृत्ति का विकास होता है, और फिर वह इसी विचारधारा अनुरूप, सबके साथ समदर्शिता का आचार-व्यवहार करता हुआ, सदा अफुर व आनन्दमय बना रहता है। समभाव के अर्थ को स्पष्ट करते हुए फिर बताया गया कि समभाव राग-द्वेष का उपशमन कर, जन्म-मरण, रोग-सोग, खुशी-गमी, मान-अपमान, अमीरी-गरीबी, दु:ख-सुख, विजय-पराजय, लाभ-हानि आदि में समरस रहने का भाव है।

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समभाव अपना कर जो समग्र विश्व के प्रति एक सा नज़रिया रखता है, वह न किसी का प्रिय करता है, न अप्रिय। ऐसा समदर्शी अपने-पराए की भेद-बुद्धि व द्वन्द्वों से परे हो अर्थात्‌ समस्त क्लेशों, पापों व संघर्षों से छुटकारा पा, सर्वथा निराकुल व शांत हो जाता है। आगे यह भी कहा कि समभाव की साधना को परिपक्व तभी माना जाता है जब समग्र विश्व एकरूपता से दिखाई देता है। इसीलिए तो जिसका मन समभाव में स्थित हो जाता है वह जीते-जी ही हर शै में परब्रह्म परमेश्वर का अनुभव कर संसार पर विजय प्राप्त कर लेता है।

अत: उपस्थित सजनों से अनुरोध किया गया कि ममत्व बुद्धि से रहित होकर, समभाव अनुरूप जीने की पद्धति को ही अपनाओ क्योंकि इससे भिन्न पद्धति को अपनाने पर न तो जगत की और न ही जीवन की सार्थकता को प्राप्त करना संभव हो सकता है और यही अभाव फिर मनगढंत व हानिकारक विचारधारा को अपनाने का हेतु बनता है। इसीलिए जात-पात, ऊँच-नीच आदि के कारण उत्पन्न होने वाली भेद-प्रवृति त्याग दो और समभाव से ओत-प्रोत हो अविलम्ब सबके साथ सहृदयता से सजनतापूर्ण व्यवहार करना आरम्भ कर दो। याद रखो अपने सुख-दु:ख के समान दूसरे के सुख-दु:ख का अनुभव करना मानव जीवन की परम श्रेष्ठ अनुभूति है। यही वास्तव में समता का निर्मल रूप है। 

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संक्षेपत: ट्रस्ट के प्रवक्ता ने कहा कि यदि समभाव को साधना है तो देह अभिमान से ऊपर उठो यानि शरीर और शरीर से सम्बन्धित वस्तुओं के प्रति जो लगाव है, आसक्ति, मोह-ममता व अज्ञान है, उसे त्याग दो। इसके स्थान पर यह सत्य मान लो कि यह शरीर परिवर्त्तनशील है, नश्वर है और आत्मा नित्य एकरस व अजर-अमर-अविनाशी है। फिर इसी सत्य अनुरूप विचार में स्थिर बने रह, मन-वचन-कर्म द्वारा व्यावहारिकता अपनाओ। यह भी कहा गया कि समभाव को अपनाने के लिए अन्य जिस चीज़ की आवश्यकता है वह है शान्ति। शान्ति की उत्पत्ति आत्मा की स्वतन्त्रता यानि आत्मतुष्टि से होती है। इसका सम्बन्ध संतोष से है यानि इच्छाओं के विनाश से है, व हर प्रकार के दंभ, वासनाओं की गंदगी, तुच्छ स्वार्थ व लिप्सा के भाव के त्याग से है।

इसके लिए व्यक्तित्व का रूपान्तरण आवश्यक है तथा इसका अन्त परम शान्ति है। शान्ति के लिए आत्मशुद्धि आवश्यक है। अत: सब आत्मविश्लेषण व आत्मनियन्त्रण द्वारा मन में प्रविष्ट दोषों व विकारों का शमन करो। इस प्रकार अपनी भावना को निर्मल करो क्योंकि आत्मसुधार की इस क्रिया में मनुष्य की निर्मल भावना भी अतुल्य भूमिका निभाती है। भावना की तेजस्विता मनुष्य में साहस, तेज, ओज, मनोबल आदि की वृद्धि करती है तथा भावना की दुर्बलता जीवित मनुष्य को भी निर्जीव, दीन-हीन व क्षीण बना देती है।

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अत: याद रखो सजनों संसार के समस्त जीवों के प्रति मैत्री-भावना यानि सजनता का भाव, चित्त को निर्मल बना, व्यावहारिक जीवन में समभाव का सफल साधक बना सकती है। अंतत: इस शुभ दिन सबसे प्रार्थना की गई कि राग-द्वेष के भाव से बचे रहने हेतु स्व-स्वभाव में रमण करो क्योंकि यही वास्तव में समभाव है।  समभाव-समदृष्टि की युक्ति को पढ़ने-सुनने व समझने के पश्चात्‌, विधिवत्‌ प्रयोग करने में प्रवीण होने पर ही, वांछित सार्थक परिणाम, प्राप्त हो सकते हैं यानि व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक व वैश्विक उत्थान हो सकता है। अत: समभाव समदृष्टि अपनाओ और सुखी हो जाओ।