चीन ने भारतीय सेना को लेकर कई भ्रम पाल रखे हैं। वह अपनी गीदड़-धमकी से पड़ोसी देशों को धमकाने की पुरजोर कोशिश करता रहता है। भारत से इतिहास के पन्ने पलटने की वकालत करने वाला चीन जब इन्हीं पन्नों में खुद को देखता है तो उसको रोना आ जाता है। साल 1962 नवंबर महीने का 18वां दिन, भारत में दिवाली की धूम थी।
वहीं लद्दाख में चुशुल घाटी एक इतिहास रचने जा रही थी | और इस बात की भनक किसी को भी नहीं थी। साढ़े तीन बजे शांत घाटी में गोलियों की आवाज घुलनी शुरू हो गई थी।
इस दौरान सीमा पर मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व वाली टुकड़ी देश की सीमा की सुरक्षा कर रही थी। इस टुकड़ी में भारत के केवल 120 जवान थे। लेकिन मुट्ठीभर जवान चीन को ऐसा सबक सिखाएंगे इस बात की कल्पना तो पुरी दुनिया ने नहीं की थी।
अचानक हुए इस हमले में देखते ही देखते भारत माता के वीर सपूत चीनियों के लिए काल बन गए थे। भारतीय सेना के जवानों ने किस अंदाज में यह जंग लड़ी थी | उसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि 120 सैनिकों ने चीन के करीब 1300 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था।
भारतीय सेना की इस टुकड़ी के पास न तो आधुनिक हथियार थे और न ही तकनीक थी लड़ने की | हथियार के नाम पर इनके पास थी सिर्फ वीरता था । जिसका लोहा बाद में पूरी दुनिया ने माना। 120 जवानों की इस टुकड़ी का नेतृत्व मेजर शैतान सिंह कर रहे थे।
कहा जाता है कि गिन पाना मुश्किल था कि शैतान सिंह ने अकेले ही कितने चीनी सैनिकों को मार डाला था। इतना ही नहीं वो अपने साथियों को लगातार प्रोत्साहित कर रहे थे। इसी बीच उन्हें कई गोलियां लगीं।
इसके बाद सैनिकों ने शैतान सिंह को एक बड़े पत्थर के पीछे छुपा दिया। जब युद्ध खत्म हुआ तो उसी पत्थर के पीछे शैतान सिंह का शव मिला। उन्होंने अपने हाथों से मजबूत तरीके से बंदूक पकड़ रखी थी। टुकड़ी में 120 जवान और सामने दुश्मनों की फौज, बावजूद इसके मेजर के कुशल नेतृत्व के बलबूते 18 नवंबर 1962 का दिन इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया।
1962 की लड़ाई भारत-चीन
इस लड़ाई में 114 भारतीय वीर सपूतों ने देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहूति दे दी थी। जबकि जीवित बचे छह जवानों को चीन ने बंदी बना लिया था । लेकिन वीर सपूतों ने चीन को यहां भी मात दी। चीनी सेना समझ ही नहीं पाई और सभी जवान बचकर निकल कैसे आए। इस सैन्य टुकड़ी को पांच वीर चक्र और चार सेना पदक से सम्मानित किया गया था। वहीं मेजर को उनके शौर्य के चलते परमवीर चक्र से सम्मानित भी किया गया था।
भारतीय सैनिकों के इस साहस को देखकर चीनी लोगों ने अपने घुटने टेक दिए और 21 नवंबर को उसने सीजफायर की घोषणा कर दी थी। यह तारीख इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी है। जब भी भारतीय सैनिकों की वीरता और साहस की बात होती है तो ऐसा नहीं होता कि शैतान सिंह को याद न किया जाए।
सेना ने बंकरो को भी ध्वस्त किया
हिंदी-चीनी भाई-भाई ये नारा तो आपको पता ही होगा | इसी नारे और अपने भोलेपन में भारत उन दिनों खोया हुआ था। तभी 1962 की लड़ाई चीन ने छेड़ दी थी लेकिन 5 साल के बाद 1967 का वर्ष भी चीन को याद रखना चाहिए 1967 को ऐसे साल के तौर पर याद किया जाता रहेगा
इस युद्ध में हमारे जांबाज सैनिकों ने ना केवल मारा बल्कि चीनीयों के बनाए गए टेंट बंकरो को भी ध्वस्त करते हुए पैदल दौड़ा कर भागाया था रणनितिक स्तर से बेहद जरूरी नाथुला दर्रे की कहानी, चीन की दुस्साहस का परिहास है।
1967 नाथुला की लड़ाई
उन दिनों नाथु ला दर्रा की देखरेख और सुरक्षा की जिम्मेदारी 2 ग्रेनेडियर बटालियन के पास थी और सैन्य गश्त के दौरान दोनों देशों के सैनिकों के बीच अक्सर धक्का मुक्की होते रहती थी 11सितंबर, 1967 को ऐसी ही एक धक्कामुक्की की घटना के बाद नाथू ला से सेबु ला पास के बीच में तार बिछाने का फैसला लिया गया था।
इस काम का चीनी सैनिकों ने विरोध भी किया। लेकिन भारतीय सेना नही मानी इसके बाद चीनी सैनिक तुरंत अपने बंकर में लौटे और देर बाद सीमा पर गोलियो की आवजे सुनाई देने लगीं। चीनी सैनिको की और से जवाबी कार्रवाई हुई थी और वे मेडियम मशीन गनों से गोलियां चलाने लगे थे।
भारतीय सेना के 70 सैनिक शहिद लेकिन 400 चीनी सैनिको को मारा
पहले 10 मिनट में हमारे लगभग 70 सैनिक शहीद हो गए लेकिन इसके बाद भारत की ओर से जो जवाबी हमला हुआ और वो हमला इतिहास बन गया जिस अतित को चीन शायद भुलने लगा है भारतीय हमले में चीन का इरादा चकनाचूर हो गया।
सेबू ला और कैमल्स बैक से अपनी मजबूत रणनीतिक स्थिति का पूरा लाभ भारतीय जांबाजों को मिला और उन शेरों ने जमकर आर्टिलरी पावर का प्रदर्शन किया था | जिस गोलीबारी ने चीनीयों के बंकरों को नेस्तोनाबूत कर दिया और खुद चीनी आकलन के अनुसार भारतीय सेना के हाथों उनके 400 से ज्यादा जवान मार गिराए थे।
भारतीय सेना के सुरमाओं की ओर से लगातार तीन दिनों तक दिन रात फायरिंग जारी रही शांत से रहने वाली घाटियों में बस गोला बारूद और आर्टिलरी की तडतडाहट ही सुनाई दे रहीं थी | भारत ने चीन को मुंहतोड़ जबाव दिया था चीनी अपना सेक्टर छोड़ कर भाग चले थे और इस तरह 1967 नाथु ला पास की पहली लड़ाई हमने जीती थी।
15 सितंबर 1967 की तारीख में दोनो देशों के बीच वरिष्ठ भारतीय सैन्य अधिकारियों के मौजूदगी में शवों की अदला बदली हुई।
भारतीय सेना ने रोते चीनी सेनिक को लौटाया
ऐसे ही एक मामले में, कोरियाई युद्ध (1950-54) के दौरान भारत के पहले संयुक्त राष्ट्र शांति मिशन की एक छवि को एक झूठे दावे के साथ साझा किया जा रहा है कि यह 1967 के नाथू ला से भारत और चीन के बीच संघर्ष और एक चीनी कैदी-युद्ध को दर्शाता है चीन द्वारा संघर्ष खो देने के बाद पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) डर गया था।
छवि में एक विचलित सैनिक दिखाया गया है जिसे दो भारतीय सेना के जवानों द्वारा ले जाया जा रहा है और इसे एक दावे के साथ साझा किया जा रहा है जिसमें लिखा है, “ऐतिहासिक फोटो: 1967 नाथुला! आत्मसमर्पण के लिए #PLA से सजा का डर चीनी सैनिक वापस नहीं जाना चाहता। संघर्ष खो दिया और अपने क्षेत्र में वापस जाने के बाद भारतीय सैनिकों ने उसे वापस कर दिया।
अब भारत से युद्ध 1962 जैसा संभव नहीं है
चीन कोरोना महामारी के सही आंकड़े ने देता हो, वह अपने सैनिकों के मारे जाने की संख्या कैसे दे सकता है? चीन यह समझ रहा है कि भारत से युद्ध 1962 जैसा तो कतई संभव नहीं है, जब वायुसेना को इस्तेमाल नहीं होने नहीं दिया गया था, उस समय चीन की वायुसेना बहुत कमजोर थी।
चीन की आर्थिक गलियारा प्रोजेक्ट, चीन की चैधराहट, महाशक्ति बनने का गुरूर, अपने पड़ोसी की गुन्डे की तरह आतंकित करने का स्वभाव, दम्भ, भारत से युद्ध में चकनाचूर होगा ही। युद्ध में दोनों पक्षों की हानि होती है, परन्तु यदि भारत से चीन का युद्ध होता है तो इस समय चीन का तथाकथित वर्चश्व का भ्रम नष्ट होगा।
लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के साथ भारत और चीन के बीच बढ़ते तनाव के साथ, सोशल मीडिया पर इस मुद्दे पर गलत सूचनाओं में वृद्धि हुई है। भ्रामक दावों के साथ कई असत्यापित चित्र और वीडियो बड़े पैमाने पर प्रसारित किए जा रहे हैं।
Written by- Prashant K Sonni