यह बात किसी को अब बताने की आवश्यकता नहीं है कि दिल्ली को किसानों ने अपंग क्यों बनाया हुआ है। सभी जानते हैं कि नए कृषि कानूनों के विरोध में किसान आंदोलनरत हैं। यह आंदोलन 140 दिनों से अधिक समय से चल रहा है। कृषि व्यवस्था में व्यापक सुधार के कानूनी प्रयास से किसान का विचलित होना कोई आश्चर्य नहीं था, यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। इससे महत्वपूर्ण इस कानून की वह पृष्ठभूमि थी जिसमें ये कानून अस्तित्व में आए।
नए खेती कानूनों के विरोध में शुरू हुआ आंदोलन देश – द्रोहियों को बचाने का आवाहन करता है। अनुच्छेद 370 का निरस्तीकरण, तीन तलाक की समाप्ति एवं नागरिकता संशोधन अधिनियम जैसे महत्वपूर्ण कानून बनाने के उपरांत सरकार का साहस और आत्मविश्वास दोनों ही लबालब थे।
किसानों को बरगला कर दूसरी राजनैतिक पार्टियों ने राजनीति की ओछी मिसाल दी। इसमें उसे देश विरोधी ताकतों का साथ मिला। इन्होनें किसान आंदोलन को इस रूप में लाने के लिए अपना योगदान दिया। अपनी भूमिका अपने अपने तरीके से निभाई। जहां सरकार के आत्मविश्वास ने फैसलों को सख्ती से लागू करने की दृढ़ इच्छाशक्ति दी, वहीं विपक्ष भी स्वयं को पुनर्जीवित करने के मौके को भुनाने के लिए कटिबद्ध दिखाई दिया।
हर राजनैतिक पार्टी को किसानों के रूप में वोट बैंक दिखाई दिया। देश के बारें में न सोचकर सत्ता के लालच का विपक्ष ने परिचय दिया। सरकार इन कानूनों के प्रति आश्वस्त होते हुए इन पर दृढ़ता से आगे बढ़ने के फैसले पर अडिग रही। वहीं विपक्ष ने संयुक्त रूप से इस आंदोलन के पीछे अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए इसे एक अवसर में परिर्वितत करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी।
किसानों के कन्धों पर बंदूक रख कर जिसको मौका मिला उसने गोलियां चलाई। देश की छवि धूमिल करने का पूर्ण प्रयास किया गया। टूल किट से लेकर लाल किला हर बात की साजिश रची गयी। किसान नेता जो कह रहे थे यह आंदोलन राजनीति से दूर है वह राजनैतिक पार्टियों के लिए वोट मांगने लगे। असल में यह आंदोलन किसानों का नहीं देश विरोधी ताकतों का है। परेशानी उन्हें कृषि कानूनों से नहीं मोदी है और भारत की सफलता से है।