नमस्कार! मैं हूँ फरीदाबाद और आज मैं आप सबसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ। क्या आपने कभी उम्मीदों को टूटते हुए देखा है? मैंने देखा है। जब उम्मीदें टूटती हैं तो आँखों से आँसू निकलते हैं और दिल छल्ली हो जाता है। मैंने ये सब देखा है सबके दुःख को बोझिल होकर महसूस किया है।
पर मैं चुप रह गया और यही मेरी गलती है। कल सवेरे से मेरे प्रांगण में क्रंदन हो रहा है। लोग रो रहे हैं, बिलख रहे हैं और अब मजबूर होकर अपने लिए आशियाना भी तलाश रहे हैं। मैं जानता हूँ कि जिस जमीन पर यह लोग रह रहे थे वो सरकार की है।
पर मैं पूछना चाहता हूँ कि सरकार को इस बात का इल्म तब क्यों नहीं हुआ जब जनता इन जगहों पर अपना बसेरा बना रही थी ? उस समय पर क्यों नहीं जागा प्रशासन जब यह मासूम अपने आशियाने सजा रहे थे ? मुझको पता है क्यों नहीं जाग पाया था प्रशासन। क्यों कि उस समय पर सरकार मसरूफ थी दावतें उड़ाने में और घोटाले करने में। पर इन सब में इन बिचारे फरीदाबाद वासियों की क्या गलती ?
जरा सोचिए उन परिवारों के बारे में जिन्होंने अपने उज्जवल भविष्य की कामना करते हुए अपनी देहलीज पर दिए प्रज्ज्वलित किये थे। उन घरों में वो दीपक बुझ चुके हैं। वो छोटे छोटे घर अब टूट कर बिखर चुके हैं। वो ईंट वो पत्थर अब जमीन पर गिरे हुए हैं।
मैंने देखा आज जब ये घर तोड़े जा रहे थे तो कैसे एक छोटा सा बच्चा अपने आशियाने से लिपट कर फफकर फफकर रोने लगा। उसको रोता देख ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरी छाती पर सांप लोट रहा हो। मैं आज निशब्द हूँ उस माँ के बारे में सोचकर जो अपने बच्चे के पालन पोषण को लेकर चिंतित है। क्या जवाब दूँ उसको?
आज टूटे हुए घरों के पास इन सभी गरीब फरीदाबाद वासियों की उम्मीदों को बिखरा हुआ देख कर मैं टूट चूका हूँ। इन सबकी परेशानियां मुझको खा रही हैं। मेरे निजाम और मेरी सरकार से तो मैं अपील मात्र ही कर सकता हूँ कि मेरे इन अपनों की बेहतरी के लिए आपको बड़ा कदम उठाना होगा। महामारी और महंगाई ने इन सभी को तोड़ रखा था पर घर टूटने के ग़म ने इनका सीना छल्ली कर दिया। अब इनसे इनके जीने का हक मत छीनिये और इन्हे जीने की वजह दीजिये।