बाड़मेर में बनी एक पुरानी झोपड़ी सुरक्षित करने के उद्देश्य से हाइड्रा क्रेन की सहायता से एक जगह से हटाकर दूसरी जगह शिफ्ट करने का प्रयास किया गया। और पुरखाराम का कहना था कि इस झोपड़ी को लगभग 50 साल पहले उनके दादा ने बनाया था।
दीमक लगने की वजह से झोपड़ी की नींव कमजोर हो गई थी।यही कारण है कि इस शिफ्ट करने की जरूरत पड़ी। पुरखाराम का मानना है कि यदि समय-समय पर इसकी मरम्मत कराई जाती रहे तो झोपड़ी 100 साल से ज्यादा समय तक के लिए सुरक्षित रह सकती है ।गर्मी के दिनों में रेगिस्तान का तापमान तकरीबन 45 डिग्री पार कर जाता है।
लोगों को ऐसे में लोगों को इस भीषण तापमान से बचने के लिए कंडीशनर की आवश्यकता पड़ती है ,लेकिन ऐसे झोपड़ी में ना तो पंखों की जरूरत होती है और ना ही AC की ।इसलिए इस झोपड़े को हाइड्रो मशीन से सुरक्षित स्थान पर शिफ्ट किया गया। आज के समय में झोपड़ी को तैयार करने वाले लोग जिंदा ही नही
पुरखाराम ने आगे बताया कि एक झोपड़ी को तैयार करने के लिए लगभग 50 से 70 लोगों की जरूरत पड़ती है। वही इसको बनाने में 2-3 दिन का समय लग जाता है।झोपड़ी को बनाने में तकरीबन 80 हजार का खर्च बैठता है
लेकिन सबसे ज्यादा चिंता का विषय यह है कि आज के लोगों को ये झोपड़ी बनाने की नहीं आती है।गांवों में जमीन से मिट्टी खोदकर ,पशुओं के गोबर को मिलाकर, दीवारें बनाई जाती थी ।इन मिट्टी की दीवारों के ऊपर बल्लियों और लकड़ियों से छप्पर के लिए आधार बनाए जाते थे।
झोपड़े को तैयार को करने के लिए मुख्य रूप से सामग्री में आक की लकड़ी ,बाजरे के डोके यानी डंठल खींप, चंग,या सेवण की घासो का इस्तेमाल किया जाता था।
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